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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भक्ति की शक्ति - भक्तिः आत्मसमर्पण का रुप : तुह सामियुतुहु माइबप्पुतुहु मित्तपियकर तुहु गइ तुहु मइ गुरु खेमकरु, हुं दुह मर मरिउ वराड राड निमग्गह, लीनु तुम्ह कम कमलं जिनपालह चंगय ।। अनंत अपराधी और अल्प ज्ञानी भी शीघ्र मुक्त हो गये तथा अल्प अपराधी व महाज्ञानी भी अनन्त काल के लिए भव भ्रमण में भटक गये, इसमें कारण भक्ति अभक्ति के सिवा अन्य क्या है? भक्ति आत्मसमर्पण का रूप है. इससे अहंकार का नाश होता है. पापों का मूल 'अहंकार' है. सब धर्म का मूल ‘दया' अर्थात् 'दुःखित दुःख प्रहाणेच्छा' (दुःखियों के दुःख सम्पूर्णतः अंत करने की इच्छा) है. जिनमें यह गुण उत्कृष्ट चोटी पर पहुँचा हुआ है, उन्हें नमस्कार करना यह भक्ति है. महापुरुषों की करुणा, दया और विश्व के प्रति आत्मीयता की भावना - यह अशुभ का ह्रास और शुभ की वृद्धि कर रही है - अतः उनकी करुणा के प्रति समर्पित होना कर्तव्य है और इसका नाम 'भक्ति' है. यह भक्ति सब प्रकार के लौकिक और लोकोत्तर अहंकार का नाश करनेवाली, चित्त को परम शांति प्रदान करने वाली है. __ इसलिए भक्ति विभोर होकर नवांगी टीकाकार आचार्य श्री अभयदेव सूरीश्वरजी भगवान की स्तुति करते हुए फरमाते हैं कि “हे तरण तारण! आप ही मेरे एकमात्र नाथ हो. आप ही मेरे माता पिता हो. आप ही प्रेम से भरपूर मित्र है. आप ही मेरी गति हो. आप ही मेरी मति हो तथा आप ही कल्याण करने वाले गुरू हो. मैं निर्भागियों का सिरताज माया मोह से भरा हुआ आपके चरण कमल की शरण में आया हूँ. मुक्त दीन अनाथ को अपना समझ कर मेरी रक्षा करो. देवाधिदेव के प्रति सर्व समर्पण भाव लाने पर अवश्य ही भक्त का कल्याण होता है. इसलिए कहा गया है कि 'भक्त के अधीन भगवान है'. For Private And Personal Use Only
SR No.008716
Book TitleJivan Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1995
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size7 MB
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