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________________ सचित्र जैन कथासागर भाग ८६ पापी पर दृष्टि डालो। पारसमणि पत्थर को स्वर्ण बनाती है उसी प्रकार आप मुझे अपनी पवित्र तप-तेज दृष्टि से पावन करो, महाराज! क्या उत्तर नहीं दोगे ? क्या मेरा उद्धार होगा या नहीं ? क्या मैं आपकी दृष्टि का स्पर्श करने योग्य नहीं हूँ ? तो सुनो, जिसे मैंने अत्यन्त प्रिय मानी थी वह सुपमा मेरी न बनी तो उसे मैंने दूसरे की नहीं बनने दिया और इस तलवार से उसका प्राण ले लिया । यह तलवार चाहे जितनी रक्त-प्यासी हो परन्तु मैं अव उसे किसी के रक्त की बूँद नहीं देना चाहता । मैं आपसे अपने जैसे पापी के उद्धार का मार्ग माँगता हूँ और वह मार्ग नहीं है तो मैं इसी तलवार से अन्तिम प्यास आपसे बुझाकर अत्यन्त गहरी घोर दुर्गति से पुनः बाहर न आऊँ वैसा वन जाना चाहता हूँ । ' हरि सोमपुरा - (५) मुनि ने चिलाती की अच्छी तरह परीक्षा की। वह पापी था, हत्यारा था, परन्तु वह हठी पापी मानव नहीं था । वह क्रूर, घातक और डरावना था फिर भी सत्यवंत, प्रण का पक्का और परिणामतः पुण्यशाली था । मुनि ने 'नमो अरिहंताणं' कह कर कायोत्सर्ग पारा तो तुरन्त चिलाती वोला, 'महाराज ! महा पापी का उद्धार हो ऐसा जीवन औषध तो धर्म है ऐसा सुना है, तो आप मुझे वह औषध दो और मुझ महापापी का उद्धार करो।' 'चिलाती! उपशम, विवेक एवं संवर धर्म है । इनका चिन्तन करने वाला, पालन करने 'पाषाण को पल्लव एवं लोहे को कंचन बनाने का सामर्थ्य मुनियों में होता है' ऐसा जान पापी चिलाती मुनि के चरण में गिरा ! १
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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