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________________ उपशम विवेक एवं संवर अर्थात् महात्मा चिलाती का वृत्तान्त ८५ में भीषण दुर्विचार आया कि 'खाऊँ नहीं तो फैंक तो दूँ' और उसने 'सुषमा बनेगी तो मेरी अन्यथा किसी की नहीं' - यह सोच कर एक ही झटके में उसका सिर काट J कर हाथ में लेकर वह पर्वत की खाइयों में उतर गया । धनावह सेठ सुषमा के मृत धड़ के पास आकर फूट-फूट कर रोये । लुटेरे का पीछा करके मैंने भूल की अथवा ठीक किया उसका वे कोई निर्णय नहीं कर सके । वे शोकाकुल बने नगर की ओर लौट चले । पुत्री की ऐसी करुण मृत्यु से सेठ का हृदय विरक्त हो गया और अल्प समय में ही घर-परिवार छोड़कर उन्होंने संयम ग्रहण कर लिया । (४) एक हाथ में रक्तरंजित मस्तक तथा दूसरे हाथ में चमकती हुई तलवार लिये यमतुल्यचिलाती वन में दूर दूर चला जा रहा था। मैं कहाँ जा रहा हूँ? क्या कर रहा हूँ'- इसका उसे तनिक भी भान नहीं था । वन के भेडिये, वाघ, चीते और सिंह जैसे हिंसक पशु भी उसकी काल भैरवी मूर्ति से भयभीत होकर गुफाओं में छिप जाते थे । इतने में समीप ही उसने एक वृक्ष के नीचे शान्त मूर्ति चारण मुनि को कायोत्सर्ग ध्यान में देखा । एक क्षण के लिए चिलाती ने मुनि के मुख मंडल पर दृष्टि डाली और दूसरे क्षण उसने अपनी ओर निहारा तो अमावस और पूर्णिमा की रात्रि जितना अन्तर प्रतीत हुआ । कहाँ तो शान्त रस से दीप्त एवं मुँदे हुए नेत्रों वाली अमृत की वृष्टि करती यह मूर्ति और कहाँ मैं रक्तरंजित हस्त एवं क्रोध- धूम्र - मलिन हृदय और अग्नि बरसाता ज्वालामुखी तुल्य धृष्ट मानव ! वह आगे बढ़ने के लिए तत्पर हुआ । इतने में उसके पैर रुक गये और हृदय ठहर गया । दासी पुत्र, लुटेरा, स्त्री-हत्यारा तथा अपार पाप करने वाला मैं पापी अपनी छाया से मुनि को दूर रखूँ अथवा उनकी पवित्र छाया से अपनी देह को पवित्र करूँ ? पवित्रता का अंश जिसमें हो वह पवित्र बनता है। परन्तु मुझ में तो उसका लेशमात्र भी नहीं है? पाषाण को पल्लव एवं लोहे को कंचन बनाने का सामर्थ्य ऐसे महात्माओं में होता है; वे मेरा उद्धार नहीं करेंगे यह मैं कैसे मानूँ ? चिलाती ने मुनि की ओर पाँव बढ़ाया और होश में आने पर सुषमा के चेहरे पर दृष्टि डाली तो उसका चेहरा उसे उपालम्भ देता और उसके पापों के प्रति तिरस्कार करता प्रतीत हुआ । 'सुषमा! मैं तेरे द्वारा ही नहीं परन्तु क्या जगत् के प्राणी मात्र से तिरस्कृत होने योग्य हूँ, तू जा, मैं अव वैसा नहीं रहूँगा, सुधरूँगा ।' - यह कहते हुए उसने सुषमा का सिर दूर रख दिया और साथ ही साथ पाप को भी दूर रख कर वह मुनिवर के चरणों में गिर कर कहने लगा, 'महाराज ! नेत्र खोलो इस दासीपुत्र - लुटेरे - हत्यारे
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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