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________________ (७) सच्ची माता अर्थात् मुनि अरणिक की कथा (१) तगरा नगरी के व्यवहारी दत्त एवं उसकी पत्नी भद्रा के अर्हन्त्रक-अरणिक नामक इकलौता पुत्र था। दत्त एवं भद्रा ने एक वार अरिहन्त परमात्मा की वाणी सुनी और उन दोनों को वैराग्य उत्पन्न हो गया। वे दोनों संसार छोड़ने के लिये तैयार थे, परन्तु बालक अरणिक का क्या किया जाये, यह विचार उन्हें व्याकुल कर रहा था । कभी तो वे धन-सम्पत्ति सहित पुत्र को किसी को सौंप कर दीक्षा ग्रहण करने का विचार करते तो कभी उसका थोड़ा वड़ा होने के पश्चात दीक्षा अंगीकार करने के विचार पर आते। बिल्ली को यदि दृद्ध सौंप दें तो कितने समय तक सुरक्षित रहेगा? उस प्रकार धनसम्पत्ति सहित छोटा वालक सौंपे तो सम्हालने वाला व्यक्ति वालक को सम्हालेगा अथवा सम्पत्ति पर अधिकार करेगा, उस आशय से सौंपने का विचार मन्द हो जाता। साथ ही साथ यह विचार भी करते कि प्रत्येक मानव भाग्य साथ लेकर आता है। उसके भाग्य में सम्पत्ति होगी तो रहेगी और जानी होगी तो जायेगी। माता-पिता संसार में हों तो भी अन्त तक चे थोड़े ही वालक को सम्हाल सकते हैं? हम संसार में क्यों रुके रह? हमें आयुष्य का भरोसा थोड़े ही है कि पुत्र वड़ा (वयाक) होगा तब तक जीवित रहेंगे? इस प्रकार उलटे-सीधे विचार करने के पश्चात् वे दोनों एक ही विचार पर आये कि हम दोक्षा ग्रहण कर लें और बालक भी दीक्षा ग्रहण करे, जिससे उसकी ओर ध्यान जाने से हमारे संयम में भी खेद नहीं होगा। दत्त, अर्हनक एवं भद्रा तीनों ने दीक्षा अङ्गीकार की । भद्रा साध्विया के साथ विचरने लगी और दत्त तथा अर्हन्नक सुविहित आचार्य के समुदाय के साथ श्रमणत्व में जीवन व्यतीत करने लगे। अणिक साधु बन गया फिर भी उसे पिता मुनि की शीतल छाया में कुछ भी कठिनाई नहीं प्रतीत हुई । इत्त मुनि ने गंयम प्रहण किया, परन्तु पुत्र के प्रति राग होने के कारण
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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