SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वाध्याय-श्रवण अर्थात् अवन्तिसुकुमाल का वृत्तान्त ४९ 'माता! चने यदि चवायें नहीं जा सकेंगे तो मोम में समाविष्ट तो हो जायेंगे न ? माता! पुष्पों का कीड़ा पुष्पों को पहचानने के पश्चात् विष्टा में कैसे रहेगा ? मुझे ये स्त्रियाँ नरकागार प्रतीत होती हैं, यह वैभव वादलों के छाँवसा प्रतीत होता है और यह ऋद्धि बिजली की चमक सी प्रतीत होती हैं। माता ! पुत्र के शुभ स्थान पर जाने में अन्तराय मत ड़ाल ।' 'पुत्र ! तू पागल हो गया है। तेरी सुकोमल देह यह सब सहन नहीं कर सकेगी।' 'माता ! सहन नहीं करेगी तो मैं अनशन कर लूँगा ।' अवन्तिसुकुमाल ने पत्नियों को, माता को और घर को छोड़ दिया; स्वयं ने मुनिवेप धारण किया और गुरु के समीप जाकर निवदेन किया, 'महाराज ! मुझे दीक्षित करें ।' गुरु ने उसे दीक्षित कर दिया और वृद्ध साधु को सौंप दिया । अवन्तिसुकुमाल मुनि ने गुरु को निवेदन किया, 'भगवन्! मेरी इच्छा अनशन करने की है। आप आज्ञा प्रदान करें तो तनिक भी विलम्ब किये बिना स्व-कल्याण करूँ । ' गुरु की आज्ञा प्राप्त करके अवन्तिसुकुमाल मुनि अनशन करके स्मशान मे कायोत्सर्ग ध्यान में रहे । स्मशान में सियारों की ध्वनि चारों ओर कान बहरे करती थी, परन्तु मुनि के कानों में तो उसी नलिनीगुल्म की पंक्तियाँ गूंज रहीं थी । भले भले को बिह्वल करने वाले हाड़ पिंजर सामने पड़े थे, फिर भी अवन्तिसुकुमाल का चित्त तो शुभ ध्यान में निश्चल था । ठीक एक प्रहर रात्रि व्यतीत होने पर वहाँ एक भूखी सियारनी बच्चों के साथ आई और पाँव काटने लगी। एक प्रहर तक पाँव को काटती रही। तत्पश्चात् जाँघ, पेट आदि राव उसने काट खाये परन्तु मुनि तो ध्यान में निश्चल रहे और ध्यान-दशा में ही वे स्वर्गवासी हो गये। प्रातःकाल हुआ। भद्रामाता एवं पत्नियां अवन्तिसुकुमाल मुनि के दर्शनार्थ स्मशान में गई, परन्तु उन्हें वहाँ न देख कर गुरु से पूछा। गुरु ने रात्रि का समस्त वृत्तान्त सुनाया और कहा कि तुम्हारा पुत्र नलिनीगुल्म में से आया था और वहीं चला गया । करुण क्रन्दन करती पत्नियों और माता ने उसके कलेवर (शव) को आँसुओं से भिगो दिया । उसकी ऊर्ध्व - क्रिया क्षिप्रा नदी के तट पर की। एक पत्नी जो गर्भवती थी उसके अतिरिक्त सवने दीक्षा अङ्गीकार की । अवन्तिसुकुमाल की उस पत्नी को पुत्र हुआ। उसने पिता की स्मृति में क्षिप्रा नदी के तट पर ऊँचे महामन्दिर का निर्माण कराया और आज भी वह खड़ा हुआ मुनिस्वाध्याय के श्रवण से आत्म-कल्याण करने वाले अवन्तिसुकुमाल की स्मृति करा रहा हैं । (श्राद्धदिनकृत्य से )
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy