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________________ (१९) दृढ़ संकल्प अर्थात् महात्मा दृढप्रहारी (9) दृढ़प्रहारी का वास्तविक नाम तो अन्य था परन्तु वह क्रूर था और जिस पर उसका प्रहार होता वह खड़ा नहीं हो सकता था । अतः लोक उसे दृढ़प्रहारी कहते थे । दृढ़प्रहारी जाति से ब्राह्मण था । उसके पिता का नाम समुद्रदत्त था और माता का नाम समुद्रदत्ता । वह सात वर्ष की आयु से ही कुसंगति में पड़ गया। ज्यों-ज्यों यह वडा होता गया, त्यों-त्यों उसके उलाहने आने लगे। किसी को मारता पीटता तो किसी की चोरी कर आता । सोलह वर्ष की आयु में तो उसकी शिकायत राजा के पास पहुँची । राजा ने कुछ समय तक उसे दण्ड दिया, परन्तु वार वार की शिकायतों से तंग आकर राजा ने उसे मार-पीट कर गाँव से बाहर निकाल दिया । दृदप्रहारी भटकता - भटकता जंगल में गया और वहाँ वह चोरों की पल्ली में जाकर रहा । लड़का सुन्दर हैं, युवा है तथा अपने धन्धे में कुशल है यह देख कर चोरों के नायक ने उसे पुत्र तुल्य रखा । कुछ समय में तो दृढप्रहारी की धाक जम गई। गाँव तो क्या, बड़े-बड़े शहर भी उससे काँपने लगे । दृढप्रहारी का नाम सुनते ही लोक धन-सम्पत्ति छोड़ कर भाग जाते । यदि कोई भूल कर उसका सामना करता तो दृढ़प्रहारी एक प्रहार में उसका काम तमाम कर देता | उसने अनेक लूट कीं और अनेक व्यक्तियों के प्राण लिये । (२) एक वार दृढ़प्रहारी ने अपने साथियों के साथ कुशस्थल पर आक्रमण किया । उस गाँव में एक देवशर्मा ब्राह्मण रहता था । वह अत्यन्त निर्धन होने के साथ आंधक सन्तान वाला भी होने से सदैव दुःखी रहता। कई दिनों से उसके बच्चे उससे कह रहे थे कि 'पिताजी! अपने यहाँ खीर बनवाओ न ?' देवशर्मा ने किसी के घर से दूध, किसी के घर से शक्कर तो किसी के घर से चावल माँगकर ब्राह्मणी से खीर बनवाई और वह नदी पर स्नान करने चला गया। कुछ समय पश्चात् अपने दो बच्चों को नंगे बदन हाँपते हुए रोते-रोते भागते हुए आते देखा । ब्राह्मण ने नदी में से स्नान करते-करते वाहर निकल कर उन्हें पूछा, 'क्यों रो रहे हो ?' बच्चों ने कहा, 'गाँव में डाकू आये हैं । उन्हें किसी का घर नहीं मिला, अतः वे अपने
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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