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________________ नमस्कार मंत्र स्मरण अर्थात् अमरकुमार वृत्तान्त ११३ (२) राजगृही में ऋपभदत्त नामक एक निर्धन ब्राह्मण था, जिसके समस्त कुलक्षणों से युक्त भद्रा नामक पत्नी थी। निर्धन के घर प्रायः सन्तान का अभाव नहीं होता, उस प्रकार भद्रा भी एक के पश्चात एक बालक को जन्म देती और उन्हें मार-पीट कर, तिरस्कार करके बड़े करती। उसके चार पुत्र थे। छोटे पुत्र का नाम अमरकुमार था । ढोल पिटता सुनकर भद्रा गली से वाहर आई और उसने सुना कि बालक के तोल के वरावर राजा सोनये (स्वर्ण-मुद्राएं) प्रदान करेगा | वह तुरन्त गली में खेलते हुए वालक अमरकुमार को पकड़ लाई और कहने लगी, 'लो, इस मेरे अमर को और लाओ स्वर्ण-मुद्राएँ। जव अमरकुमार ने यह बात सुनी तो वह तुरन्त काँप उठा और माता के चरण पकड़ कर कहने लगा, 'माता! तू मेरी जननी होकर मेरा विक्रय क्यों कर रही है? मुझे मत वेच, तू कहेगी वह मैं करूँगा | माता! मुझ पर दया कर ।' ___ 'मैं वेचूँ नहीं तो क्या करूँ? सब को उदर-पूर्ति मैं कहाँ से करूँ? तेरा पिता चुटकी भर आटा भीख माँग कर लाता है उससे क्या होता है? तू किस काम का है?' । 'पिताजी! आप माता को समझाओ, यह मेरा विक्रय न करे । मैंने कोई अपराध नहीं किया । मैं आप कहोगे वैसा करूँगा।' करुण एवं दीन भाव से आँसू छलकाते हुए अमरकुमार ने पिता से कहा। पिता ने अपना सिर पकड़ लिया, परन्तु वाघिन जैसी भद्रा से कुछ कहने की शक्ति उनमें नहीं थी। उन्होंने केवल इतना ही कहा, 'अमर! प्राय: यह कहा जाता है कि पिता की अपेक्षा माता सन्तान को अधिक प्यार करती है | वही तेरा विक्रय करने के लिए तत्पर हो गई, तो मैं उसका विरोध करके भी क्या कर पाऊँगा?' अमरकुमार चाचा-चाची, ताऊ-ताई, मामा-मामी एवं समस्त रिश्तेदारों के घर घूमा । 'मुझे बचाओ, मैं आपके घर का समस्त कार्य करूँगा, आपके वालकों की देख-भाल करूँगा और बड़ा होऊँगा' - आदि निवदेन किया, परन्तु सबने सुना-अनुसुना कर दिया तो किसी ने 'काका-मामा कहने का' कहकर उक्ति की सार्थकता स्पष्ट की। कोतवाल, अमरकुमार एवं भद्रा शहर के राजमार्ग से होते हुए आगे बढ़े। उनके पीछे लोगों की भीड़ थी । अमरकुमार को जो कोई मिलता वह उसी से कहता, 'मुझे वचाओ, बचाओ', परन्तु किसी ने उसे सान्त्वना नहीं दी। शहर के मध्य में दुकानों पर बैठे दयालु गिने जाने वाले सेठों को प्रणाम करके अमरकुमार ने कहा, 'गाय, पशु, पक्षी सबको बचाने वाले, जीवदया के लिए पिंजरापोल चलाने वाले हे महाजनो! मुझे बचाओ | मेरी पापिन जननी की धन की अभिलाषा को
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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