SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ राजकुमार के हाथी के चारों और घेरा डाल कर खड़े हो गये। सेवकों ने उन्हें पंखा झेलकर शीतलता प्रदान की और जल छिड़का, जिससे कुछ समय में वे स्थिर हुए। चेतना आने पर वे बोले - 'पिताजी! शोभायात्रा नही जायेगी। आप एकान्त में आइये। मैं आपसे कोई विशेष वात कहना चाहता हूँ।' शोभायात्रा का विसर्जन हो गया। वाद्ययंत्र आदि भी लौटा दिये गये। राजा, राजकुमार एवं आप्त-जन एकान्त में बैठे । राजकुमार यशोधर ने कहा, 'पिताजी! मैं विवाह करना नहीं चाहता। मुझे यह संप्तार असार प्रतीत होता है । भेड़ों की तरह इस संसार में जीव पग-पग पर लड़खड़ाता है। मुझे संसार के प्रति कोई राग नहीं है।' विनयंधर ने कहा, 'पुत्र! यह कोई तरीका है। विवाह रचा गया है। दोनों पक्ष के स्वजन विवाह की प्रतीक्षा में हैं। उस समय ऐसा कैसे कहा जाये कि विवाह नहीं करूँगा? यदि विवाह नहीं करना था तो तुझे पहले कहना चाहिये था। यह तो तेरे लिए, मेरे लिए और राजकुमारी तीनों के लिए विडम्बना है।' यशोधर ने सुरेन्द्रदत्त के भव से लगाकर स्वयं के जातिस्मरणज्ञान हुआ तब तक का समस्त वृत्तान्त सुनाया। विनयंधर आदि सबने स्थिर चित्त से वृत्तान्त सुना। वे विरक्त हो गये फिर भी बोले, 'पुत्र! अभी तु विवाह कर ले | फिर तुझे दीक्षा ग्रहण करनी हो तो वधु को समझाकर तु सुख से दीक्षा ग्रहण करना।' 'पिताजी! आप ऐसा मिथ्या आग्रह क्यों कर रहे हैं? स्त्री तो वैरागी के लिए बन्धनस्वरूप है, शान्ति के लिये शत्रु-स्वरूप है। सिंह पराक्रमी होते हुए भी पिंजरे में रहने से निष्क्रिय होता है, उस प्रकार स्त्री को स्वीकार करने से दृढ़ वैरागी भी परलोकसाधन में निष्क्रिय हो जाते हैं। पिताजी! आग्रह छोड़कर आप मुझे दीक्षित होने की अनुमति प्रदान करें। विनयंधर ने कहा, 'पुत्र! सय यात सत्य है परन्तु विवाह के लिए तत्पर बिचारी विनयमती का क्या होगा?' यशोधर बोला, 'यह तो सामान्य बात है। आप मेरी समस्त बात उसे बता दो। यदि उसकी भवितव्यता भी सुदृढ़ होगी तो वह भी विरक्त हो जायेगी।' विनयंधर ने कहा, 'यदि वह सहमत हो जाये तो मेरी तुझे अनुमति है।' और शंखवर्धन नामक वयोवृद्ध अमात्य को विनयमती के निवास पर भेज दिया। शंखवर्धन अमात्य का विनयमती ने सत्कार किया और पूछा, 'आपकी क्या आज्ञा
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy