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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: । देता हूं. ये पर्व कोई नाराबाजी लगाने का नहीं, फेरी लगाने का नहीं, किसी आत्मा को दुखी करने का पर्व नहीं हैं. जिससे अनेक आत्माओं को शान्ति समाधि मिले, पर्व की आराधना इस प्रकार से की जाती है. भगवान की जीभ पर पांव लगाकर करके परमात्मा के चरणों में मस्तक नहीं रखना है. जिनेश्वर भगवन्त ने जो आदेश दिया. उसका परिपूर्ण पालन करना है. परमात्मा की आज्ञा का जरा भी अनादर मुझे नहीं करना है. परन्तु आदत से लाचार छोटे से प्रलोभन में विचारे लोगों को गुमराह हम कर देते हैं. सम्पर्क दृष्टिकोण या मार्ग दर्शन को मिलना चाहिये मिल नहीं पाता. फिर हमारे साधु पुरुषों में भी जगत का परिचय कई बार पतन का कारण बनता है. इसीलिए मैं कहूंगा यहां तो निर्देश दिया - "अवर्णवादश्चसाधुषु" ऐसे साधु पुरुषों की भी निन्दा नहीं करनी. अवर्णवाद का परिचय का परित्याग कर देना. कभी उनके लिए गलत बोलना नहीं, परन्तु साधुओं के लिए जिन का मैं परिचय दे रहा हूं ऐसे पवित्र सन्त महात्मा जो एकान्त आत्म कल्याण की भावना से जिनकी साधना चलती है, जिनके अन्दर राजनीति न हो. कूटनीति न हो. जिनके अन्दर माया, प्रपंच न हो, ऐसे साधु महात्मा मुझे चाहिये. जहां जाकर के मैं आत्मा की शान्ति प्राप्त करूं.. मेरे जैसा साधु भी अगर राजनीतिक रूप लेले. आप को यदि प्रवचन का ही रास्ता बतलाये. संघर्ष और क्लेश का ही मार्ग - दर्शन दे. मेरी साधुता कहां रही. वो तो क्रोध, कषाय की आग में जल करके राख हो गयी. फिरतो साधपना का पैकिंग रहा माल तो गायब हो गया. साधु कभी उतेजित नहीं होगा. कभी आवेश में नहीं आयेगा. कभी लोगों को गलत मार्गदर्शन नहीं देगा. कभी उत्तेजना नहीं देगा. और आज तो हमारी ऐसी दशा हो गई साधु सेनापति बन जाए और आप जैसे सैनिक मिल जाएं. करो फायरिंग. यही चल रहा है. साधु तो नाम मात्र को रह गया, दुर्गन्ध से हमारा जीवन भर गया, क्लेश और कटुता हमारे जीवन में आ गई. ऐसे साधु से यहां कोई मतलब नहीं, ऐसी साधुता को कभी वन्दन करते ही नहीं. यहां तो जो साधु हो, सुसाधु हों, परमात्मा जिनेश्वर की आज्ञा के अधीन रह करके जो आत्म कल्याण के लिए चलें, उन महात्माओं के लिए अपना जीवन अर्पण कर दूं. उनके रक्षण के लिए अपने प्राणों का भी बलिदान कर दूं. यह हमारी भावना होनी चाहिए. __ साहू सरणम् पव्वज्जामि" साधु पुरुषों को मैं पूर्णत : अपना जीवन अर्पण करता हूं. यह मंगल भावना साधु पुरुषों व हमारे अन्दर आनी चाहिए. यदि मैं परिग्रह का ही संग्रह करने वाला बन जाऊं. बाहर - CUCU - 299 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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