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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी वाणी के गुण परम उपकारी, परम कृपालु आचार्य भगवन्त श्री हरिभद्रसूरि जी ने जीवन की साधना का बहुत सुन्दर व्यवहारिक मार्ग-दर्शन इस सूत्र के द्वारा दिया है. जहां तक व्यक्ति अपने जीवन में व्यवहार का शुद्धिकरण नहीं कर पायेगा वहां तक आत्म शुद्धि की कोई सम्भावना नहीं, जीवन का वर्तमान व्यवहार की अशुद्धि लेकर खड़ा है. वाणी के अन्दर, बर्तन के अन्दर, विचारों के अन्दर, ऐसी अशुद्धता है कि यदि उस पर आप साधना की भूमिका का निर्माण करें वह सम्भव नही होगा. जीवन के अन्दर यदि इस प्रकार व्यवहार अशुद्ध होगा. सम्पूर्ण जीवन यदि असत्य की भूमिका पर होगा, विचारों में यदि कटुता और वैर की दुर्भावना होगी तो वहां सद्भावना का आगमन कैसे होगा? विचारणीय प्रश्न है. इसीलिए जीवन की प्राथमिकता का इस सूत्र के द्वारा परिचय दिया. यदि प्रारम्भ में धर्म साधना से पूर्व व्यक्ति इस प्रकार अपना जीवन निर्माण कर ले तो भविष्य में आत्मा के अनुकूल अपने जीवन का निर्माण कर सकता है. परन्तु जहां आपका व्यवहार शुद्ध नहीं, वहां पर निश्चय ही धार्मिकता की बात आप छोड़ दीजिए. क्योंकि चारों तरफ से कर्म का आक्रमण चालू है. हमने पूर्व में जो उपार्जन किया है, उस पूर्व कृत कर्म का यह वर्तमान परिणाम है. पूर्व में अज्ञान दशा में विषय के अधीन बन कर पौदगलिक वासनाओं को लेकर न जाने कितना भयंकर कर्म का अनुबन्ध हमने किया है. वर्तमान में उनका कट परिणाम हम रोज भोगते हैं. वर्तमान में यदि आप ने इसकी उपेक्षा की तो सारी दुनियां पाप का प्रवेश द्वार बन जाएगी. यदि पाप का प्रवेश द्वार इन्द्रियों को बना दिया गया तो पुण्य कार्य में आपका उत्साह कहां से होगा. अन्दर तो सब गन्दगी भरी है. सारा ही जीवन विषय की दुर्गन्ध से घिरा हुआ है. इस दुर्गन्ध के हम आदी बन गए हैं. बहुत बड़े सन्त पुरुष किसी सम्राट् के आमन्त्रण से राजमहल के अन्दर एक दिन पहुंचे. सम्राट् उनका परम भक्त था. सम्राट के बहुत विनंती करने पर महात्मा वहां पर गये. राजप्रासाद के अन्दर प्रवेश करते ही उन्होंने कहा कि “राजन्! मुझे इस भयंकर गन्दगी में क्यों ले आए? मैं एक क्षण भी यहां पर रह नहीं सकता. यहां पर बड़ी दुर्गन्ध है." राजा ने कहा "भगवन्! आपकी धारणा कुछ गलत है. सारा ही राजप्रसाद सुगन्धमय है." सन्त ने कहा – “तुम्हारी दृष्टि अलग है, इस दुर्गन्ध को तुम समझ नहीं पाते हो, मुझे अब यहां से जल्दी जाने दो.” यह कहकर वे उसी समय वहां से लौट गये. कुछ दिन बाद राजा फिर से उन्हें आमन्त्रण देने गया. मन में विचार किया. कदाचित मेरे व्यवहार Hall में कोई ऐसी त्रुटि रही है कि सन्त पुरुष आकर के लौट गये. मझे लाभ मिला नहीं. द 261 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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