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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: बड़ा सुन्दर उसका चिन्तन था. कवि ने कहा जिस व्यक्ति के पास पैसा है वही कुलीन है, वही वक्ता है और वही दर्शनीय है कितने आश्चर्य की बात है कि सभी गुण सोने के अन्दर आ गए. “यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः" यदि दो पैसा आ जाए तो व्यक्ति को जगत् कहेगा – कि आह! बड़ा कुलीन, बड़े खानदान और बड़े रईस घराने के हैं क्योंकि पैसा आ गया. सारे दुर्गुण उस सोने की चमक में ढक गये, और व्यक्ति की महत्ता नजर आई. यदि कोई सज्जन व्यक्ति, सात्विक पुरुष, महा विद्वान, महान् घराने से आया हो. पैसा उसके पास न हो तो जगत कभी उसको स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि पैसा नहीं है. यह स्वभाव है, उसकी सात्विक दृष्टि में लोगों को दरिद्रता नज़र आएगी. भिखारी है, भूखा है, खाने को नहीं, पहनने को नहीं, जगत् को उपदेश देने के लिए निकला है: “स एव वक्ता स च दर्शनीयः" यदि पैसा आ जाए और टूटा-फूटा वक्तव्य दे जाये, भाषण दे जाए तो लोग कहेंगे - ओ! विचार करने वाला भाषण है, बहुत महत्त्वपूर्ण भाषण है, समाचार पत्रों में स्थान मिल जाएगा. लोगों के मस्तिष्क में उसकी जगह मिल जाएगी. बड़ी प्रशंसा होगी - चाहे आता-जाता कुछ भी न हो. परन्तु यदि कोई ऐसा व्यक्ति जिसके पास पैसा न हो, महा विद्वान हो, विचारक हो, चिन्तनशील व्यक्ति हो और बहुत अनुभव के द्वारा दार्शनिक भाषा में आत्मज्ञान का परिचय अपने प्रवचन से देता हो - लोग कहेंगे - खाली तपेला है - आवाज करता है. आता-जाता कुछ भी नहीं है. क्या बकवास करता है? माथा दुःख रहा है. अनादि काल का यह स्वभाव है “सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति" जगत् के ये सारे ही गुण, उस सोने के टुकड़े के अन्दर आ गए, जितने भी गुण हैं, उसी में नजर आते हैं. पैसा प्राप्त करना भी सरल है परन्तु परोपकार में लगाना, उसके लिए बहुत बड़ा पुण्य चाहिए. जहां तक पुण्य का अभाव होगा, वहां तक अर्पण की भावना कभी पैदा नहीं होगी. अन्दर में देने की रुचि नहीं आई है, लेकिन देने के तरीके अलग-अलग हैं. बहुत-सी जगह पर, दान भी कन्डीशनल (सशर्त) होता है. मैं यह देता हूं, इसका फायदा मुझे मिले, बेनिफिट (लाभ) मिले. ज्ञानियों की भाषा में कहा गया कि वह दान नहीं, व्यापार है. आपने पैसा दिया, उसने नाम दिया. दान का प्राण चला गया. वह मोक्ष का कारण, आत्म-शांति और समाधि का कारण नहीं बनेगा. और फिर भी हम स्वीकार करते हैं. क्यों? - 143 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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