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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी n ikaansarma RENonstellheat liwalawww.everalHARMEDARSHUBHASHARE AMISARAImao R सहधर्मी भक्ति - ऐसी सुन्दर, अपूर्व भक्ति को छोड़कर के हम कहां जाएं? इन आत्माओं की सेवा से घर बैठे धर्म मिलता है. परमात्मा प्रसन्न होते हैं, उनका आशीर्वाद मिलता है. हमारे अशुभ कर्म का निवारण होता है और उपार्जन किए हुए जो अशुभ कर्म हैं, जिसका परिणाम गलत आने वाला है, वे सारे कमें इसके द्वारा क्षय हो जाते है. अतः यह कैसी सुन्दर और मंगल क्रिया है. ऐसी परिस्थिति में हमारा नैतिक कर्त्तव्य क्या है? आप खा लेते हैं, पी लेते हैं, परिवार का भरण-पोषण करते हैं पर नैतिक दृष्टि से हमारा और भी कर्त्तव्य है. पड़ोसी, हमारे परिवार, हमारी जाति में रहने वाले, हमारे परमात्मा के शासन में रहने वाले और दीन-दुःखी उनको आप देखिए और अगर हमनें कुछ नहीं किया तो हमारा अपराध है. यथाशक्ति आपके जो अनुकूल हो वह उनके लिए करिए. परिस्थितियों से जकड़ा व्यक्ति कई बार न करने जैसा कार्य भी कर जाता है. गलत तरीके से जीवन व्यतीत करना पड़ता है. अगर धन्धा नहीं मिला तो गलत काम करना पड़ता है. उस गलत कार्य के करने में जितना दोषी वह व्यक्ति है, उससे कहीं ज्यादा वह व्यक्ति है जो उस व्यक्ति की परिस्थितियों से अनजान बनकर उसे अपनी स्वार्थ पूर्ति का साधन बना कर रखता है. रायबहादुर बुद्धसिंह प्रख्यात और बहुत बड़े जमीदारों में से थे, घर के मुनीम की लडकी की शादी का प्रसंग आया. शादी में खर्च करने लायक पैसा उनके पास नहीं था, मन में पाप का प्रवेश हो गया. उनके यहां से चार-पांच चांदी की थाली गायब कर दी. पैसा अर्जित करने के लिए उन थालियों का जब बाजार में बेचने के लिए गया. दुकानदार ने थालियों में रायबहादुर का प्रतीक-चिह्न देखा, और वह समझ गया कि थाली चोरी करके लाई गई है. दुकानदार बड़ा प्रामाणिक और ईमानदार था, माल ले लिया इस भाव से कि कहीं गलत जगह न चला जाए और रायबहादुर के घर पर संदेश भेज दिया कि अमुक नाम का व्यक्ति आपके घर से इस प्रकार सामान चोरी करके मेरी दुकान पर लाया है, कृपया अपना सामान वापिस ले जाएं. आज से सत्तर, अस्सी वर्ष पहले की घटना है, तब लोग बड़े प्रामाणिक थे, ईमानदार थे, किसी पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा का अनुभव करने वाले थे, आज जैसा कलुषित वातावरण नहीं था. आप सोचिए. जब समाचार पहंचा व्यक्ति का नाम आया, तो रायबहादुर मन में विचार करने लग गए कि वह ऐसा नहीं हो सकता. एकान्त में उस व्यक्ति को बुलाया और बुलाकर के बडे प्रेम से पछा कि भाई, तम हमारे भाई हो, हमारे सहधर्मी हो, भगवान का तिलक लगाते हो, परमेश्वर की आज्ञा का तुम पालन करते हो. ऐसी क्या मजबूरी तुम्हारे अन्दर आई कि तुमको यह पाप करना पड़ा. बिना पूछे, बिना आज्ञा हमारे घर की थाली ले जा कर तुम बेच आये. कौन सी मजबूरी में ऐसा करना पड़ा. याद रखो! तुम्हारी इज्जत वह मेरी इज्जत है. यह बात मेरे पेट से अभी तक गई नहीं, जाने वाली भी नहीं. मुझे सच-सच बता दो. liol ना 129 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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