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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी मानव अपने इतिहास की वास्तविकता से मुँह फेर लेता है और परिणामतः हमारी आध्यात्मिक भावनाएँ कण्ठित हो जाती हैं, नष्ट हो जाती हैं. मन्दिर टूटते थे, उसकी हमें चिन्ता नहीं थी, अब जब भावना तोड़ी जा रही है, उसकी बड़ी चिन्ता है. मन्दिर विद्यमान रहेंगे, उसमें जाने वाले भी रहेंगे, परन्तु जाने के साथ जुड़ी आस्था की उमंग समाप्त हो जाएगी. परमात्मा के पास जाने की भावना खत्म की जा रही है. यह शिक्षा नहीं परन्तु शुगर कोटिड पायज़न (मीठा जहर) है. शब्दों के माध्यम से ऐसा नशा दिया जा रहा है. सारी भावना विकृत की जा रही है. वैभव का प्रदर्शन उसी का परिणाम है. भगवान महावीर ने कभी इस प्रकार का उपदेश नहीं दिया, आदेश नहीं दिया कि तुम अभिमान और अन्याय से द्रव्य का उपार्जन करो, अनीति से उपार्जन करो और उसे अभिमान से खर्च करो. न्याय से उपार्जन करना और तीर्थस्थानादि मन्दिर में खर्च कर देना. मुझे इससे-बड़ी प्रसन्नता होगी, तुम्हारे अपराध माफ हो जायेंगे. भगवान के यहां यह आदर्श नहीं है कि तुम गटर में पांव डालो और गुलाबजल से पांव धो लो और गन्दगी चली जाएगी. न्याय से, नीति से, प्रामाणिकता से धन उपार्जन करो. अपने प्रारब्ध में विश्वास रख कर के कार्य करो और बड़ी नम्रता से अर्पण करो, बड़ी लघुता से तुम दो ताकि अन्दर की प्रभूता मिल जाये. सर्वप्रथम शिष्टाचार के द्वारा उन्होंने यह बतायाः कभी प्रकृति का कोई प्रकोप आ जाए, उस समय पहले उस कार्य के लिए अपना योगदान देना. कोई दुष्काल का प्रसंग आ गया, दुर्भिक्ष आ गया, कोई प्राकृतिक प्रकोप जैसे भूकम्प आ गया, अचानक कोई बाढ़ आ गई, तूफान आ गया, ऐसे समय में खाना-पीना, जलसा करना, शिष्टाचार के विपरीत कार्य हो गया. आपका धर्म अपमानित होगा, आपकी बदनामी होगी. लोग अप्रिय शब्द आपके लिए कहेंगे. आपके धार्मिक अनुष्ठान की प्रतिष्ठा कम करेंगे. वहां पर उसकी उपेक्षा करके वर्तमान में क्या आवश्यकता है जिससे लोग धर्म की अनुमोदना करें. इस मंगल भावना से कार्य करना है कि मेरे कार्य की प्रशंसा हो, उस प्रशंसा से मेरे भाव और उल्लास जागृत हों तथा मेरे चित्त की शांति और समाधि बनी रहे. इसीलिए शिष्टाचार सम्बन्धी प्रथम सूत्र में बतलाया गया है कि "लोकापवाद भीरुत्वं" लोक रुचि को देख कर कार्य करना चाहिए, उससे विपरीत नहीं. जब ऐसा प्रसंग आ गया तो देखा लोगों ने अपने प्राण देकर के, अपना बलिदान देकर के, हमारी संस्कृति को बनाये रखा. जब उन्होंने हमारी संस्कृति को जीवित रखा तो हम भी कुछ ऐसा कार्य करें अपना योगदान देकर के परमात्मा महावीर के विचारों को स्थायी बनायें. भगवान के विचारों को अपने जीवन में आकार दें. शिष्टाचार के अन्तर्गत दूसरा प्रकार बतलाया 'दीनाभ्युद्धरणादरः' Join 126 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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