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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गुरुवाणी: - - ___ जीवन की शुद्धि के लिए पहले आप सहन करना सीखें. उसमें भी सर्वप्रथम शब्द की चोट को सहन करना सीखें क्योंकि कटुता वहीं से पैदा होती है. संघर्ष वहीं से पैदा होगा. इसने ऐसा कह दिया, उसने वैसा कह दिया. महान पहुचे हुए सन्त थे. ऋषि थे. ध्यानस्थ बैठे थे. कोई उनका परम भक्त था. बड़ी सुन्दर वस्तु लाकर अर्पण कर गया. सामने एक व्यक्ति ने जब यह नजारा देखा मन में विचार आया कि यह कैसा सन्त है, कैसा साधु हैं. कहीं कमाने जाता नहीं, खाता पीता मज़ा करता है. मन में ईर्ष्या पैदा हुई. इसके भक्त वर्ग कैसे हैं. बड़ी मूल्यवान चीज लाकर सामने रख गए. झांक कर देखता भी नहीं. बेवकूफ है. जवान व्यक्ति था, सामने आकर के नहीं बोलने जैसा बोल गया. कायर आदमी है, घर से भाग कर आ गया. बाल-बच्चों का पालन-पोषण करने की ताकत नहीं इसलिए बाबा बन गया. मुफ्त का खाना मिलता है. बोलने वाले कटु शब्द वह बोल गया. महात्मा के चेहरे पर कोई वेदना का चिन्ह नहीं. अपनी प्रसन्नता में मग्न साधना का नशा ऐसा है जो कभी उतरता ही नहीं. आप रात को शराब पीयेंगे तो उसका खुमार सुबह उतर जाएगा. परन्तु इस साधना का खुमार ऐसा है, एक बार इसे अपना लिया तो जिन्दगी में उतरे ही नहीं. जगत् का दर्द या दर्द का अनुभव भी नहीं होने देता. आनंद का ही अनुभव होगा. कोई दर्द नहीं होगा. इस नशे में यह मजा है. साधु अपनी साधना में मस्त थे. जगत् से शून्य थे क्या हो रहा है कुछ मालूम ही नहीं. परन्तु हम अपनी साधना में तो, हम सब ध्यान रखते हैं. माला गिनते समय घर की पूरी चौकीदारी रहती है. भगवान का भजन चलता हो, लक्ष्मीनारायण के मन्दिर में गए हो. जूता बाहर खोल करके आए. मन जूते में रहा. शरीर भगवान के पास ले गए. ऊपर से प्रार्थना कर रहे हैं. आप दृष्टि देखिए. "त्वमेव माता च पिता त्वमेव" दृष्टि तुरन्त बाहर जूते की तरफ घूमेगी कि जूता है या गायब हो गया. फिर जूते की तरफ नज़र करते हुये बालेगा. "त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव" फिर वापस मुड़ कर भगवान् के सामने देखकर बोलेगा. "त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव" फिर बाहर जूते की तरफ देखकर बोलेगा. "त्वमेव सर्वम् मम देव देव" जूते से भी गई बीती हमारी प्रार्थना. जूते का मूल्य समझ लिया. प्रार्थना का मूल्य आज तक समझ में नहीं आया. यह जूता बड़ा मूल्यवान है. दो सौ-चार सौ में लाया हूं. - म 97 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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