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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांच महाव्रत की पांच भावना लोगों ने समझा बड़े मियां के ससुराल में कोई मर गया है। पासपड़ोस के लोग रोते चिल्लाते इकट्ठे हो गये। किसी ने पूछा, ''कौन मर गया ?'' मियां बोले, "अाज तो सुहागरात है, होने वाला शेरखां मर गया ।'' ज्ञानी कहते हैं, भविष्य को चिता में अपना वर्तमान क्यों जला रहे हैं ? 'कार्यं च किं ते परचिंतया च ।' बिना मतलब को चिता-शोक जीव को समाधि नहीं देता। इसलिये चिंता का त्याग करना चाहिये । चिता को दूर करने के लिये भावना और अनुप्रेक्षा से चित को भक्ति करना चाहिये। उसके द्वारा एकाग्रता प्राप्त होगी। शुभ ध्यान का स्थान अन्तर में प्रखड चलता रहेगा। स्वस्थ चित्त हो तो दुःखो अवस्था में भी मार्ग निकल जाता है । दौलत नामक एक मुनीम किसो सेठ के यहाँ कई वर्षों से नौकरी करता था, बहुत भला, नेक और संतोषी था। एक दिन सेठ ने दौलत को कहा, 'व्यापार मंदा हो गया है, इस दीपावली से तुम्हारी छुट्टी कर देंगे, दूसरी जगह नौकरी ढूढ़ लेना।'' मुनीम को भयंकर चिता हो गई । कहाँ दूसरी नौकरी ढंढगा, क्या होगा? फिर सोचा व्यर्थ चिता से क्या फायदा ? जब चिंता का त्याग कर दिया तो विचार शक्ति फिर से प्रा गई। दोपावली के दिन सेठजी लक्ष्मी पूजा कर रहे थे, तभो दौलत वहाँ पहुँचा और जोर से आवाज लगाई, "बोलो सेठ ! दौलत रहे या जाय ?" सेठ विचार में पड़ गया, लक्ष्मी पूजा के समय कैसे कहे कि दौलत (धन) जाय ? सेठ ने कहा दौलत रहे । मुनीम ने फिर पूछा, "दौलत थोड़े दिन के लिये रहे या सदा के लिये रहे ?" सेठ ने सोचा लक्ष्मी पूजा के समय यदि कह दूं कि दौलत जाय तो अपशकुन होगा । अतः बोले, ''दौलत मेरी पेढ़ी में सदा के लिये रहेगा।" यदि दौलत चिंता में हो रहता तो मर जाता, परन्तु उसने चिता का त्याग कर दिया इसलिये सुखी हुमा । मैत्री आदि चार भावना ध्यान के लिये उपयोगी है। भावना के बाद अनुप्रेक्षा का नंबर पाता है। जिन तत्त्वों को आप भूल गये हैं, उनका चिंतन करके फिर से याद करे, अर्थ के विचार में गहरे उतरे, धर्म कर्म के मर्म को बराबर समझे, उसको अनुप्रेक्षा कहते हैं। एक ही वस्तु में चित्त की स्थिरता-ध्यान अंतरमुहूर्त तक रहता है। अंतरमुहूर्त की व्याख्या इस प्रकार है: For Private And Personal Use Only
SR No.008690
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherBuddhisagarsuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size8 MB
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