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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचार रत्नसार ८९५ सतो जीव सिद्धि गतिए जाय, पण वचमां विषम श्रेणिना आकाशप्रदेश न फरसे माटे ते अपेक्षाए सिनी अफुसमाणगति कहिए, तथा समश्रेणिए आकाशप्रदेश फरसतो फरसतो जाय, ते अपेक्षाए क्षेत्रआश्रिफुसमाणगति कहीए, अने एक समयथी बीजा समयना अंतरने न फरसे ते माटे आश्रि अफुसमाण गति कहे छे. २६५ प्र० - त्रणकारना पुद्गलो दृष्टांतथी समजावो. उ०- विश्रसा ते स्वभावे कोइ निमित्त पामी तदाकार थाय, जेम इंद्रधनुष्यादि अभ्रवत्, २ प्रयोगसा ते जीव व्यापारे, उद्यमे करीने जे निपजे, जेम भवन, घटपटादि ३ मिश्रसा ते कांइक सहज स्वभावे अने कांडक प्रयोगे जेम ते माणसे जुनो पटो बांच्यो अथवा जुनी पाघडी बांधी इत्यादिमां पुद्गलों जीर्णप थवं ते स्वभावे कहीए, अने बंधनकर्म ते मनुष्यना प्रयोगवडे थाय छे, एम स्वभाव अने प्रयोगे मळी बनेल वस्तुने मिश्रसा पुद्गल कहे छे. २६६ प्र० - श्रीतीर्थकरना जन्मादिककल्याणक वखते साते नरके केटलं अजवालुं थाय ते कहो. उ०- पहेली नरके सूर्यसमान उद्योत, २ बीजीए वादळे ढांकेला सूर्यसमान, ३ त्रीजीए पूनमना चंद्रसमान, ४ चोथीए वादळे ढांकेला चंद्रमासमान, ५ पांचमीए ग्रहोना उद्योत समान, ६ छठीए नक्षत्रना उद्योत समान, ७ सातमीए ताराना उद्योत समान. १४३ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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