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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचार रत्नसार. उ०-" जीवेणकहविफासियं, अंतमुहुत्तंपिजेणसमत्तं । निय माअवदपुग्गल, परियट्टोचेवसंसारो” ॥१॥ पुद्गलानांपरावर्त्तः पुद्गलपरावर्त्तः, अपकृष्टः किश्चिन्यूनोऽईपुद्गलः परावतः अर्द्धपुद्गलपरावतः अथ अन्तर्मुहूर्त्तनुं प्रमाण. अन्तर्मुहूर्त अष्टसमयो वटिद्वयं यावदित्यर्थः तन्चसम्यक्त्वोपशमिकं अत्रक्षेत्रपुद्गलपरावर्त्तनाधिकारः न द्रव्यादि पुद्गलपरावर्तेत्युपदेशकम् । __एक चपटी वगाडीए अथवा आंख मींचीने उघाडीए तेटला वखतमां असंख्यातासमय थाय तेवा नव समयथी मांडीने एक मुहूर्त जे एक सामायिकनो काल बेघडी प्रमाण छे, तेमां एक समय ओछो, तेटला कालने अंतर्मुहूर्त कहीए, अर्थात् जघन्यथी नवसमय, उत्कृष्ट बे घडीमां एक समय ओछो, अने ए बेनी वचमां जेटला समयनी संख्या ते सर्वे मध्यमअंतर्मुहूर्त जाणवाः एवी रीते अंत मुहूर्तना असंख्याता भेद थाय छे. १५४ प्र०-जातिस्मरण ते शुं ? तेना केटला भेद अने तेमां . केटला भवनुं ज्ञान थाय ? 3०-अत्रगाथा " पुव्वभवासोपिछई, एकदोतिनिजावनवगंवा उवरितस्सअविसओ, सभावओजाईसमरणस्स ॥१॥ कोइपण वस्तु शब्दरूपादि जे पूर्वे भवांतरमां गाढ परिचितअभ्यास सहवासरूप थएल होय एवा घर, हाट, वाडी, वस्त्र, भूषणादि आकृति मात्र देखतां, शब्द मात्र सांभळतां थकां, पूर्वभवसंबंधि जे For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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