SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 846
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचार रत्नसार. परिषह उपसर्ग सहन करवामां निर्भय, साहसिक, केसरि सिंहसमान पराक्रमी, वीरपरमात्मा उपमा प्रमाणे पण सिद्ध थया जाणवा; ४ प्रत्यक्ष प्रमाणे जिनप्रतिमा जिन सरखी होवाथी वीरपरमात्मास्थापना निक्षेपे सिझ थया, कारण जे समभाव, शांत मुद्रा, विशुद्ध पर्यकासन इत्यादिनो उत्पाद, रागद्वेषनो व्यय, अने मूळस्वरूपे ध्रुव, सच्चिदानंद धनमय एवी असलनी नकल श्री जिन प्रतिमाजी छे ते देखी भावथी श्री वीरपरमात्मा प्रत्यक्ष सिद्ध थया जाणवा; स्थापनाजीनी भक्ति ते साक्षात्नी बराबरज छे, कारणे कार्य उपचारे सत्य छे. १३० प्र०-जीव अष्टकर्मवर्गणादलिक केवी रीते वहेंची आठे कमने आपे छे ? उ०-समय समय जीव कर्मवर्गणा ग्रहे छे, ते आठे कर्मने वहेंची आपे छे ते आवी रीतेः-सर्वथी थोडां आयुकर्मने, तेथी विशेषाधिक नाम अने गोत्रने, ते बेउमां मांहोमांहे सरखां; तेथी १ ज्ञानावरणीय, २ दर्शनावरणीय, ३ तथा अंतराय ए त्रणने विशेषाधिक पण मांहोमांहे सरखां दळ आपे, तेथी मोहनीयने संख्यातगुणाधिक, तेथी वेदनीयने अधिक; एम वेदनीयकर्मने सर्वथी अधिक दळ मळे छे, केम जे वेदनीय विपाक जीवने थोडा दळे प्रगटपणे जणाय नहि तेथी. इति भगवतीसूत्रे का छे. १३१ प्र०-जीव विग्रहगति करे तो तेनो उत्कृष्ट काळ केटलो ? For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy