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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१२ विचार रत्नसार. समपणुं थयुं, परिणति मध्यस्थ थइ तथा निमित्तपणे पुण्य पापना उदय काळे हर्ष के खेद न करे, मध्यस्थ साक्षिरूप रहे. ११६ प्र०-जिननी चार निक्षेपे भक्ति शी रीते करवी ? उ०-पवित्रताथी एकाग्रचित्तेआशातना टाळी, जिननुं नाम जपीए ते नाम निक्षेपे जिनभक्ति, २ स्थापना निक्षेपे जिनप्रतिमाजीनी अष्ट प्रकारी, सत्तर भेदी आदि पूजा भक्ति विधिथी करतां भावपूजा तन्मय थइ परिणमे ते, ३ तथा व्यनिक्षेपे जिनभक्ति ते, जिनना जीव तेना गुणे भावे जिनना जीव जाणी तेमनी भावथकी वंदनादि करवू ते, ४ तथा भाव निक्षेपे जिनभक्ति से, त्रिगडे बेटा समोसरणे अनेक भव्यजीवोने प्रतिबोध आपता एवा जेम हाल श्री सीमंधरादि स्वामी छे तेमने वंदना नमस्कार गुण स्तुति इत्यादि करवी ते. ११७ प्र०-जीवने कर्म संबंधी करज तथा कर्म जनित भाव दरिद्रपणुं केम टळे ? उ०-जीव अनादि काळनो राग द्वेष मोहे परिणमे छे, तेने देवू तथा दरिद्रपणुं बेउ वधे छे; ते टाळवानो उपाय ए छे जे समकित गुणनी प्राप्ति थए, शुद्ध रत्नत्रय धर्म प्रगटवाथी टळे; ते आवी रीते के दर्शनगुण थए द्वेषभाव टळे समभाव प्रगटे, तेथी ज्ञान गुण प्रगटे माटे, तेथी पुद्गलादि परवस्तु उपर मोह टळे, वैराग्य प्रगटे, तेथी चारित्रगुण प्रगटे, तेथी For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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