SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 834
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचार रत्नसार. ते तेमज क्षायिकसमकितीने तथा क्षयोपशमसमकितीने बीजं त्रीजुं न होय पण उपशमसमकिती पडतां बीजे बीजे आवे तेने जिननामनो बंध नथी; बीजे बीजे सत्ताए १४७ प्रकृति होय, उपशम समकित आखा भवमां पांच वखत आवे छे, तेमां चारवार श्रेणिगत अने पांचमीवार पडतां आठमे गुण ठाणे अटकी क्षपकश्रेणि मांडीने केवळज्ञान पामे. ११३ प्र०-क्षयोपशम, उपशम अने क्षायिक सम्यक्त्वनुं स्वरूप तेना भेद सहित टुंकमां कहो. उ०-क्रोधादि चार अनंतानुबंधी चारित्रमोहनी प्रकृति अने मिथ्यात्वमोहनीनी त्रण प्रकृति, ए सातने उपसमावे त्यारे उपशमसमकित अने सातेनो क्षय करे त्यारे क्षायिक अने सात प्रकृतिना उदयनो क्षय करे अने उदयमां न आवेलां उपशमावे तेने क्षयोपशम सम्यक्त्व कहे छे. हवे ते विषे जे कांइ विशेष जाणवा योग्य छे ते कहे छे:--- दुहो. चार खपे त्रण उपशमे, पंच क्षय उपशम दोय; पद् उपशम एक एम, क्षयोपशम त्रिक होय. अथवा क्षयोपशम वरते विविध, वेदक चार प्रकार क्षायिक उपशम युगल युत, नवधा समकित धार. दुहानो खुलासोःसात प्रकृति मध्ये चार चारित्रमोहनीनी छे. त्रण प्रकृति 102 ५७ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy