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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૭૮૦ विचार रत्नसार सना आवी जवारुप पुद्गलानंद होय पण भवाभिनंदिपं टक्युं छे. माटे सम्यग्दृष्टि जीवने पुद्गलानंदि कहिये, ३ आत्मानंदि जीव ते जेने केवळ आत्मिक आनंद, शुद्ध रत्नत्रय धर्मे, तन्मयपणे, स्वरूप लीनताए, समस्त व्याकुळता रहित, सहजस्वभाव विलासिपणारूप मुनि महात्माओने - योगीश्वरोने होय छे. ६२ प्र० - सद्गति अने दुर्गति ते शाथी थाय छे ? ते विस्तारथी स्पष्ट समजावो. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उ० - शुभोपयोगे सद्गति, अने अशुभोपयोगे दुर्गति, अशुभोपयोगे संसार लाभ अने शुद्धोपयोगे एटले स्वभाव परिणतिए तन्मयपणे परिमणतां मुक्ति थाय, कारण के शुभ प्रकृतिने उदये जीवना योग शुभ वर्ते, तेथी धर्म हेतु शुभ क्रिया साधना करे, तेथी पुण्य बांधे अने तेथी सद्गति थाय छे; तथा अशुभोपयोगे अशुभ कर्मनो उदय थतां योग अशुभ वर्ते, तेथी अशुभ क्रिया विषयादि सेवे तेथी पाप बंधाय छे, अने तेथी दुर्गति थाय छे; ते माटे पुण्य पाप शुभाशुभयोगने आयत छे, अने धर्माधर्म ते शुद्धाशुद्ध उपयोगने आयत छे, अर्थात् राग, द्वेष, मोहजनित अशुद्धोपयोगे अधर्म छे, तेज मिथ्यात्व छे; अने अशुद्धोपयोग ते रत्नत्रयरूप शुद्धात्म परिणति, वीतरागभाव तेज धर्म छे, अने तेज सम्यक्त्व छे. ६३ प्र० - रोगातंक ते शुं ? अथवा रोग अने आतंक एटले शुं ? २८ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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