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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७४. विचार रत्नसार. ४८ प्र०-अल्प पापबंध अने अल्प कर्मबंध शी रीते थाय ? ते तेनी चौभंगी सहित कहो. उ०-पांच इंद्रिय अने त्रण योगना अशुभ व्यापारमां तदाकारपणे न परिणमे, सखेद प्रवर्ते तो अल्प पापबंध थाय; ते आलोयणे निंदागहीं करतां छूटे; तथा शुद्धोपयोगे जे कर्म बंध नीपजे ते भोगवे छुटे; पाप प्रवृत्ति करतां तीव मलीन परिणामे तन्मय थतां तीव्ररसे घणां निविड कर्म बांधे; अने घणी अशुभ योगनी हलचले पाप पुद्गल घणां मेळवे, पण तदाकारपणे तीव्र कषाय अनुबंध न होय तो शिथिल बंध करे; एम कोइ जीवने पाप घj अने कर्मबंध अल्प, कोइने कर्मबंध बहु अने पाप अल्प, कोइने पाप घणुं अने कर्मबंध पण वणो, अने कोइने पापबंध कर्मबंध एके नहि; एम कर्म बंध अने पापबंध आश्रि चौभंगी जाणवी. ४९ प्र०-धर्म, कर्म अने भर्म शाथी नीपजे ? उ०-शुद्धोपयोगे धर्म अने क्रियाए कर्म अने मिथ्यात्वे भर्म निजे. ५० प्र०-पाप, पुण्य अने धर्म ए एक वस्तु के के जुदी ? उ०-धर्म, पुण्य अने पाप ए वणे वस्तुभिन्न, गतिभिन्न, उपयोगे भिन्न अने फळपणे भिन्न भिन्न छे; धर्म क्षमादि दशविध यति धर्मरूप छे, शुद्धोपयोग परिणति ए संपररूप छे, अने तेनुं फळ भोक्ष छे; पुण्य नव प्रकारे बंधाय छे शुभ परिणामे करी, ते ૨૨ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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