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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५२ www.kobatirth.org आगमसार. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलंबन विना आत्माना स्वरूपने तन्मयपणे घ्यावे एहवं ध्यान तेने शुक्लध्यान कहियें. तेहना पाया चार छे ते कहे छे. १ पृथक्त्ववितर्कस प्रविचार - ते पृथक्त्व केहतां नीवथी अजीव जूदा करवा, स्वभाव विभाव तेने जूदा पृथकपणे वहेंचण करवी स्वरूपने विषे पण द्रव्य तथा पर्यायनो पृथकपणे ध्यान करी, पर्याय ते गुणमां संक्रमावे अने गुण ते पर्यायमां संक्रमण करे ए रीते स्वधर्मने विषे धर्मांतरभेद ते पृथक्त्व कहियें अने तेनो वितर्क ते जे श्रुतज्ञाने स्थित उपयोग अने सप्रविचार ते सविकल्पोपयोग एटले एक चिंतव्या पछी बीजो चिंततेने विचार कहियें एटले निर्मल विकल्प सहित पोतानी सत्ताने ध्यावे ते पृथक्त्व वितर्कसप विचार पेहेलो पायो ए आठमा गुणठाणाथी मांडी अग्यारमा गुणठाणा सुधी छे. २ एकत्व वितर्क अप्रविचार नामा बीजो पायो कहे छे. जे जीव आपणा गुणपर्यायनी एकता करी ध्यावे ते आवी रीते के नीवना गुणपर्याय अने जीव ते एकज छै, अने महारो जीव सिद्धस्वरूप एकज छे एवो एकत्व स्वरूप तन्मयपणे अनंता आत्म धर्मनो एकत्वपणे ध्यानवितर्क केहतां श्रुतज्ञानावलंबीपणे अमे अप्रविचार केहतां विकल्प रहित दर्शन ज्ञाननो समयांतरें कारणता विना रत्नत्रयीनो एक समयी कारण कार्यतापणे जे ध्यान वीर्य उपयोगनी एकाग्रता ते एकत्व - वितर्क अप्रविचार जाणवो. ए पायो बारमा गुणठाणे ध्यावे. ए बेहु पायामां श्रुतज्ञानावलंबनीपणो छे. पण अवधि मनः पर्यव ज्ञानोपयोगें वर्तता जीव कोइ व्यान करी सके नहीं, ए बे ज्ञान परानुयायी छे माटे ए ध्यानथी धनघातिका चार कर्म खचावे. निं For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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