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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्मयन्थस्य टवार्थः ए ४ छे शेष ४ नथी. तैजसवर्गणा किहांएक सुक्ष्म कही छे. ॥ ७६ ॥ इकिकहियासिद्धा-णतंसो अंतरेसु अग्गहणा। सवत्थ जहन्नुचिया, नियणतंसाहिआ जिट्ठा ॥७७॥ ___अर्थ-जे वर्गणा मोटी थाये ते पिण सिद्धने अनंतमे भागे जेटला परमाणुआ थाये एक वर्गणाना, एम अनंतीवर्गणा जे एक समयमां अनंत प्रमाण दलिक थाय एह अनंता दलिक एक समय मध्ये जीव ग्रहण करे, ग्रहणने आंतरे विचाले ते अग्रहण जाणवी, कार्मण उत्कृष्ट थाय पिण अधिका ते अग्रहण जाणवा. सर्व जघन्य वर्गणाथी निय-पोताने अनंतमे अंशे अधिक ते उत्कृष्ट वर्गणा जागवी. ॥ ७७॥ अंतिम चउफास दुगंध, पंचवन्नरस कम्मखंधवलं। सबजियणंतगुणस्स, अणुजुत्त मणतयपएसं ॥७॥ ___अर्थ हवे कर्मपणे जे परमाणुआ लेवराये तेहनो स्वरूप कहे छे--अंतिम छेहेला जे च्यार स्पर्श-टाढो, उन्हो, लूखो, चीकणो, तिमहीज बे गंध तथा पांच वर्ण तथा पांच रस संयुक्त गोल गुणी खंध्र तेहनो समूह ते कर्मपणे लेवा योग्य दल जावो ते दलना जे परमाणुआ तेमांहे. जे रस कषाय प्रत्ययी ते र जीवथी अनंतगुणो रस एक एक परमाणुभां हुवे. ते अणुयुक्त-परमाणुआयुक्त अनंत प्रदेशी कहेतां अनंता परमाणुआनो खंध ते कर्मपणे लेवाने योग्य जाणवो. ॥ ७८ ॥ १५७ 93 For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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