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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्म्मग्रन्थस्य बार्थः ७३३ तस वन्न तेअ चउ मणु, खगइ दुग पणिदि सास परघुच्चं । संघयणा गिड़ नपु थी, सुभगिअर ति मिच्छचउ गइआ ॥७३॥ अर्थ-स, बादर, प्रत्येक, ए ४, तथा वर्णादि ४, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण, ४ मणुअदुग- मनुष्यद्विक २, खगईदुग - शुभ तथा अशुभविहायोगति, पंचेन्द्रीनीजाति, श्वासोश्वास, पराघात, उच्चैर्गोत्र, संवयण ६, संस्थान ६, नपुंसकवेद १, स्त्रीवेद १, सुभगत्रिक ३, इअर - दुर्भगत्रिक ३, एवं ४० चाळीस प्रकृति मिच्छ-मिथ्यात्वी च्यार गतिना जवन्य रसे बांधे इहां भावना कहीये छीये-शुभ प्रकृति जिहां प्रथमयी बेधाय तिहां उत्कृष्टरसे बांधे, अने अशुभप्रकृति प्रथम बंधाये तिहां उत्कृष्टरसे बांधे. अने जिहां खपे तिहां जघन्यरसे बांधे, ए रीते विचारखो. ॥ ७३ ॥ चडतेय वन्न वेअणि, अनामणुक्कोस सेस धुवबंधी । घाईणं अजहन्नो, गोए दुविहो इमो चउहा ॥ ७४ ॥ अर्थ — हवे उत्कृष्ट रसबंधना भांगा कहे छे - चउतेय तैजस प्यार ४ तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण, ए ४, तथा वर्णादि ४, च्यार ४, वेदनीय शब्दे साता वेदनीय, नाम कहेतां जसनाम अणुक्कोस- अनुत्कृष्ट बांघेतो चउहाच्यारभेदे - सादि १, अनादि २, ध्रुव ३, अब्रुव ४, ए च्यार भेदे बांधे. तिहां ए प्रकृतिनो उत्कृष्टरस क्षपकश्रेणि ए चढतो जीव बांधे, तथा बीजा जीव सर्व अमुत्कृष्टरस बांधे, ते अभव्यने अनादि ध्रुव छे. भव्यने घोलना परिणामे सादि छे, १५३ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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