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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्मग्रन्थस्य टवार्थः ७२७ निरंतर बांघे. शुभबिहायोगति १, पुरुषवेद १, सुभगत्रिक ३, उंचगोत्र १, समचौरंस १. ॥ ६ ॥ असुहखगइ जाइ आगिइ, संघयणाहारनिरयुजोयदुर्ग। थिरसुभजसथावरदस, नपुइत्थीदुजुअलमसायं ॥६१॥ अर्थ--अशुभविहायोगति १, एकेन्द्रि, विकलांत्रक, ए जाति ४ अशुभ संस्थान पांच, अशुभ संघयण पांच, आहारकद्विक, नरकद्विक, २ उद्योत, आतप, २, स्थिरनाम १, शुभनाम १, जसनाम १, थावरदसक १०, नपुंसकवेद १, स्त्रीवेद १, दुजुयलहास्य, रति, २. अरति, शोक, २. ए ४ असातावेदनीय १. ॥६॥ समयादंतमुहुत्तं, मणुदुगजिणवइरउरलुवंगेसु, तेतीसयहा परमी, अंतमुहू लहु वि आउ जिणे ॥३२॥ अर्थ--ए सुडलाळ स (टबामा ४१ लखी छे ) प्रकृति जघन्य एक समय बांधे, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्तमान काल. बांधे, मनुष्य दुंग-मनुष्य गति, मनुष्यानुपूर्वी २, जिननाम १, वज्रऋषभनाराच संघयण १, औदारिक उपांग १, ए पांच प्रकृति तेत्रीस सागरोपम सीम. निरंतर बांधे, समकिती सर्वार्थसिद्ध विमाने रह्यो निरंतर बांधे ते अपेक्षाए उत्कृष्ट काल जाणवो, जघन्य बंधकाल, आउखा ४, जिननाम १, ए पांच प्रकृति, जघन्य पण एक अंतर्मुहूर्त कालमान जाणवो. शेष प्रकृति ६८ नो जघन्य बंधकाल एक समय जाणवो. ॥ ६२ ॥ ए स्थितिबंध अधिकार पूरो थयो. हवे रसबंध अधिकार कहे छे. इति सततबंधः द्वा० १८. For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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