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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१६ कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः कहीये ए पिण उत्कृष्ट बंधक थया पछी बांधे ते माटे सादि अध्रुव लाभे, तथा जघन्यबंधक थइने एक समय अधिक अधिक बंधाय ते अजवन्य गणीये तो ॥ ४६ ॥ चउभेओ अजहन्नो, संजलणावरणनवगविग्धाणं । सेस तिगिसाइ अधुवो, तहचउहा सेसपयडीणं ॥४७॥ अर्थ - अजवन्यबंध च्यार भेदे पामीये, संजलण च्यार ४, ज्ञानावरणी पांच, दर्शनावरणी ४, ए नव, अंतराय पांच, ए १८ प्रकृतिनी अजघन्य स्थिति च्यार ४, भेदे छे, जे ए १८ प्रकृतिनो जघन्यबंध नवमे, दसमे, गुणठाणे छे तेहथी बीजा जीव सर्व अजघन्यबंधक छे, तेहमां जे ए गुणठाणे चढी पड्या छे तेहने सादि अवव छे, अभव्यने अनादि ध्रुव छे एहिज अढार प्रकृतिना, शेष तिग-शेष ३ भांगा सादि १, अध्रुव २, भेदे छे, भावना पूर्ववत्. शेष १०२ प्रकृतिनी, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, ए च्यार ४ प्रकारनी स्थिति सादि अध्रुव भांगे बंधाय, तिहां ७३ प्रकृति तो अव बंधिज छे. ते माटे किवारे बंघाये किवारे न बंधाये ते माटे सादि अध्रुव छे, २९ ध्रुवबंधिमांहेली छे ते सदा बंधाय पिण ए २९ नो जघन्यबंधक पिण एकेन्द्रीय छे, ते एकेन्द्रीयपणाने जघन्यबंध करे ते माटे जघन्य कर्या पछी अज वन्यबंध ते पिण सादि अव छे, ते माटे ए २९ प्रकृतिने सादि अनु छे. ॥ ४७ ॥ साणाई अपुते, अयरंतो कोडि कोडिओ नहिगो, बंधो न हु हीणो नय, मिच्छे भवियर सन्निमि ॥४८॥ १३६ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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