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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्म्मग्रन्थस्य स्वार्थः ७०३ areerकोडिकोडी, नामे गोएय सत्तरी मोहे । तीसयरचउसुउदही, निरय सुराउंमि तित्तीसा ॥२६॥ अर्थ- हवे मूळ कर्म आठ व्हेनी उत्कृष्ट स्थिति छे ते कहे छे - बीसयर - वीसकोडाकोडी सागर नामकर्म तथा गोत्रकर्मनी उत्कृष्टी स्थिति छे ते जाणवी, मोहनीकर्मनी ७० सीत्तेर कोटाकोडी सागरनी उत्कृष्ट स्थिति छे, चउसु - ज्ञानावरणी, १ दर्शनावरणी २, वेदनीय ३, अंतराय ४, ए च्यार ४ कर्मनी ३० कोडाकोडी सागरनी उत्कृष्टी स्थिति जाणवी. नरकना आयु तथा देवताना आउखानी उत्कृष्टी स्थिति, तेत्रीस सागरोपमनी जाणवी. उत्कृष्ट स्थिति उत्तर प्रकृतिनी पिण इहांथी गणज्यो. हवे मूल कर्मनी जघन्य स्थिति कहे छे, मुत्तु-अकषायवेदनीयनी स्थिति, वर्जिने शेष सकषायीजीव, वेदनीयकर्मनी स्थिति जवन्यें अंतमूहूर्तनी बांवे छे. अथवा १२ मूहूर्तनी बांधे छे. ए दसमे ठाणे बांधे. इहां दसमा गुणठाणाना आदि अध्यवसायें ॥ २६ मुअकसायठिइं, बारमुहुत्ता जहन्न वेअणिए । अट्ठट्ठनामगोए-सु सेसएसु मुहुत्तो ॥ २७ ॥ अर्थ- अकषायी ते ११ मुं, १२ मुं, १३ मुं, ए ३ गुणठाणामां काषायिक स्थिति जे छे तेने मुकीने एटले १० दसमे गुणठाणे जे जीव छे ते जीवने वेदनीयनी स्थिति १२ बार मुहूर्त्त जघन्यथी होय, दसमा गुणठाणाना पेहेले अध्यवसाये मुहूर्त्त मोटो लेवो, अंत्यअध्यवसायें मुहूर्त्त न्हानो लेवो, तथा क्षपकथी उपशमश्रेणियां बिमणो बंध जाणवो, नामकर्म, गोत्रकर्मनी जवन्य स्थिति आठ मुहूर्त्तनी छे. शेष जे ज्ञानावरणी तथा दर्शना १२३ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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