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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्मग्रन्थस्य टबार्थः འཉག་ཀ་ཤའག कहेतां दुर्गच्छा मोहनी २, मिथ्यात्व मोहनी १, कषाय १६ अनंतानुबंधीक्रोध, मान, माया, लोभ, ४ एम अप्रत्याख्यानी ४ पछी प्रत्याख्यानी ४ संज्वलन ४, ज्ञानावरणी ५, दर्शनावरणी ४, अंतराय ५, ए सर्व सडताळीस ४७ प्रकृति ध्रुवबंधि छे. ए मध्ये नव नामकर्मनी ९ ओगणीस मोहनीनी १९ पांच ज्ञानावरणी ५, दर्शनावरणी च्यार ४, पांच अंतराय ५, एवं ४७ सुडताळीस ध्रुवबंधी जाणवी. द्वार १. ॥२॥ तणुवंगागिईंसंघयण, जाई गई खगई मुवि जिणसासं। उज्जोयो यवे परघो, तसवीसौं गोर्य वेयणियं ॥३॥ ___ अर्थ-हवे अध्रुवबंधि ७३ कहे छ, तिहां तणु कहेतां शरीर १, औदारिक १, वैक्रिय २, आहारक ३ तैजस, कार्मण ध्रुवबंधिमे गण्या छे माटे इहां न कह्या. उपांग ३, अने संस्थान ६ संघयण ६, जाति ५, गति ४, खगति कहेतां विहायोगति २, आनुपूर्वी ४, जिननाम १, उश्वास १, उद्योतनाम १, आतप १, पराघात १, बस दशक थावरनी दस एवं वीस गोत्र २, वेदनीयकर्म २, हास्य रतिनो जोडो १, अरति शोकनो जोडो एवं जुगल. ॥ ३ ॥ हासाइजुयलदुर्ग, वेय आउँ तेवुत्तरीअधुवबंधी दार। भंगा अणाइ साइ, अणंत संतुत्तरा चउरो ॥४॥ ___अर्थ-हास्यादि जुगल बे, वेद ३, आउखां ४ च्यार ए ७३ अनुवबंधि ते कोइवार बंधाय कोइवार न बंधाय, ए मध्ये ७ प्रकृति मोहनीनी, २ वेदनीयनी, २ गोत्रनी, ४ आ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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