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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Aradhana kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri e Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्मग्रन्थस्य टबार्थः रूवजुअं तु परित्ताऽसंखंलहुअस्सरासिअभ्भासे। जुत्ताऽसंखिजंलहु, आवलिया समयपरिमाणं ॥१॥ ___ अर्थ-अने जे एक सरसव काढ्यो हतो ते भेळीजे तिवारे जवन्य परित्तअसंख्यातो थाय १ ए प्रथम असंख्यातो ए परित्त असंख्यातानी रासि छे तेहनो अभ्यास कीजीये तिवारे चोथो जवन्य युक्तअसंख्यातो थाय. इहां ए अभ्यासनी असत् कल्पना कहे छे ते किहां एक पांचनी एक रासी होवे तेमांहे पांच जुदा करी मांडीजे तेहनो धडो थाय ते सर्वनी नीचे मांडीजे पछी माहोमांहे ए गुणा कीजे-पांचो पंचा पचवीस, पचवीस पंचो १२५ थया तेने पांचगुणा कीजे ६२५ थया एहना पांवगुणा कीजे ते कीधे ३१२५ थया ए पांचनो अभ्यास थयो. इम परित्तअसंख्यनी रासी अभ्यास करतां जे थाय ते युक्त असंख्यातो जघन्य कहीजे. आवली एकमांहे जे समय छे ते ए चोथा असंख्याता प्रमाणे छे. ॥१॥ बितिचउपंचमगुणणे, कमासगासंख पढम चउसत्तागंता ते रूव जुया, मज्झा रूवूण गुरु पच्छा ॥२॥ ___अर्थ-हवे मतांतर कहे छे-जे मूल सातमेदनी अपेक्षाए द्वितीय तृतीय चतुर्थ ने पंचम राशीनो गुणणे-राशि अभ्यास करतां २१ उत्तरभेदनी अपेक्षाए सातमुं असंख्यातुं जघन्य असंख्यातासंख्यात, प्रथम अनंत ते जवन्य प्रत्येकानंत, चतुर्थ अनंत ते जघन्ययुक्तानंत, ने सप्तम अनंत ते जवन्य अनंतानंत अनुक्रमे थाय. १०० For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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