SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 674
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्मग्रन्थस्य वार्थः ६४९ अर्थ - अने मनुष्यगति मार्गणामें दोय तेहज अने असेझी पंचेद्री अपर्याप्तो भेळीजे तिवारे संज्ञीयंचेंद्री पर्याप्तो १, अपर्याप्तो १, असंज्ञीपंचेन्द्री अपर्याप्तो १, ए तीन जीवमें भेद लाभे छे: मनुष्य असंज्ञी पर्याप्तो न थाय, १४, स्थानके उपजे परं अपर्याप्तोज मरे तिणेतीन जीवभेद का छे. तेजो लेस्यामे संज्ञीपंचेन्द्री पर्याप्तो १, अपर्याप्ते १, ए दोय अने बादर एकेन्द्री अपर्याप्तो १, ए ऋण ३, जीवस्थानक छे, कारणकें देवता मरीने एकेन्द्री आवे तेने अपर्याप्तपणे तेजोलेश्या होय. थावर पांच पृथ्वी, अप्, तेउ, वाउ, वनस्पतिमे अने एकेन्द्री सूक्ष्म अपर्याप्तो १, पर्याप्तो १, बादर एकेन्द्री पर्याप्तो १, अपर्याप्तो १. ए च्यार ४ जीवनस्थानं लाभे. असंज्ञी मार्गणाए पहेलां १२ बारे जीवस्थान लाभे. बेन्द्री मार्गणा २, पर्याप्तो अपर्याप्ता. तेन्द्रमे तेज दोय, चौरेन्द्रीने तेना तेज दोय जीवस्थान छे. ॥१८॥ दसचरिमत से अजया- हारगतिरिंतणुक सायदुअनाणे ! पढमतिलेसाभविअर-अचक्खु नपुमिच्छवि ॥१९॥ अर्थ - बेंद्री १, तेंद्री १, चौरेन्द्री १, असंज्ञी १, संज्ञी १, ए पांच अपर्याप्ता ए दस जीवस्थानक त्रस्कायमे लागे. अविरति आदि मार्गणा १४, जीवस्थानक कहे छे-अविरति मार्गणामें १, आहारक मार्गणामें २, तिर्यंचगति ३, काययोग ४, कषाय ४ च्यारनी च्यारे मार्गणाए ८, मतिअज्ञान ९, श्रुतअज्ञान १०; प्रथम ऋण लेइया कृष्ण, नील, कापोत १३, भव्य - १४, अभव्य १५, अचक्षुदर्शन मार्गणा ए १६, नपुं 82 ६९ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy