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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२० कर्म्मग्रन्थस्य टबार्थः कहे छे-पीणीतिग-निद्रानिद्रा १, प्रचलाप्रचला २, श्रीणद्धी ३, आहारक शरीर ४, आहारक उपांग ५. ए पांच प्रकृति काढीजे; तो छोत्तेर प्रकृति अप्रमत्तगुणठाणे उदय छे. ॥ १७ ॥ सम्मत्तंतिम संघयणतिगच्छे बिसत्तरि अपु । हासाइछकअंतो छसट्टि अनियट्टि वेयतिगं ॥ १८ ॥ अर्थ-- हवे अपूर्वकरण कहे छे - समकीत मोहनी १ छेला तीन संघेण अर्धनाराच १, कीलिका १, छेवट्टो १, ए च्यार प्रकृति काढीजे; तिवारे आठमे अपूर्वकरणगुणठाणे बहोत्तर ७२ प्रकृतिनो उदय छे. ७२ नवमे अनिवृत्ति बादर गुणठाणे कहे छे. हास्य १, रति १, अरति १, सोग १, भय १, दुगंछा १, ए छ प्रकृति काढ़ीजे; तिवारे छासठ प्रकृतिनो उदय छे, नवमे अनिवृत्ति गुणठाणे. हवे दसमे सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे कहे छेवेद तीन - पुरुषवेद १, स्त्रीवेद २, नपुंसकवेद ३ ॥ १८ ॥ संजलणतिगं छछेओ, सट्टी सुहुमंमि तुरिअलोभंतो । उवसंतगुणे गुणसाह, रिसहनारायदुग अंतो ॥१९॥ अर्थ -- संजलणा तीन - संजलन क्रोध १, मान २, माया ३. ए छ ६ प्रकृति काढीजे; तिवारे दशमे सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे ६० साठ प्रकृतिनो उदय छे. हवे इग्यारमे गुणठाणे कहे छे-चोयो लोभ संजलगो लोभ १ ए एक प्रकृति काढीजे; तिवारे इग्यारमे उपशांतमोगुणठाणे गुणसठि ५९ प्रकृतिनो उदय छे. हवे नाले क्षीणमोहगुणठाने कहे छे-तिहां क्षीणमोह गुणठाणना बे भाग छे. तिहां पेहेले मागे ऋषभनाराच १, नाराच २. ए बे कालीये ॥ १९ ॥ ४० For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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