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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८२ कर्मग्रन्थस्य टबार्थः अर्थ---प्रकृतिबंध-कर्मनो स्वभाव १, स्थितिबंध कालनो मान २, रसबंध-चीकणाइ ३, प्रदेशबंध-दलनो मान ४, तं तिको कर्म च्यार भेदें छे. मोदकने दृष्टांते छे-जिम मोदक कोयक वायने हरे, कोयक पुष्ट करे, तिम कर्म पण ज्ञानावरणी ज्ञानने हरे, दर्शनावरणी दर्शनने हरे, इत्यादिक. स्थिति लाडूनी जेम दश दिन प्रमुख तिम कर्मनी स्थिति त्रीस कोडाकोडी आदि. रस लाडू मेथी प्रमुखमां मीठो कडवो कल्पाय छे तिम एकठाणीयो प्रमुख. प्रदेश दलमान एवं तिहां प्रथम प्रकृतिबंध कहे छे. मूलप्रकृति आठ छे-कर्म आठ छे अने उत्तर प्रकृतिआठ कर्मना उत्तरभेद १५८ एकसो अठ्ठावन छे, आप आपणो कर्मस्वभाव छे. ॥२॥ ___ हवे इहां आठ कर्मनां नाम कहे छे-- इह नाणदसणावरणवेयमोहाउनामंगोयाँणि। विग्धं च पणनवदुअहवीसचउतिसयदुपणविहं ॥३॥ अर्थ-प्रथमज्ञानावरणीय कर्म कहीए १. बीजो दर्शनावरणीय कर्म २, अमे वेय त्रीजो वेदनीयकर्म ३. मोह चोथो मोहनीयकर्म आऊ पांचमो आउखा कर्म. नाम छट्टो नामकर्म. गोयाणि सातमो गोत्रकर्म-ज्ञानावरणीयकर्म ज्ञानगुणने आवरे, दर्शनावरणीय दर्शनगुणने आवरे, वेदनीयकर्म अव्याबाध अनंतमुख गुणने रोके. मोहनीय कर्म सम्यक्त्व अने चारित्रगुणने रोके, आउखा कर्म अनवगाह गुणने रोके-(अक्षयस्थिति गुणने रोके) गोत्र कर्ग अगुरुलघुगुणने रोके. आठमो अंतराय कर्म वीर्य गुणने रोके. ए आठ नाम कया. हवे एहनी उत्तरप्रकृतिनो १५८ नो थडो को ते कहे छे-ज्ञानावरणीयनी पांच प्रकृति, दर्शनावर For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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