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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५६८ न्यानदीपिकाचतुष्पदी. ध्यावो० १० गतरागद्वेष अलेषज्ञायक, सिद्ध जग जगनाथ रे; अविकार वीतप्रपंच आतम, अज्ञानताप्रमाथ रे. व्यावो० ९ श्रीराजसागर प्रसिद्ध चिन्मय, नित्य ज्ञाननिधान रे; परम ज्ञान धरम उज्जल, राजहंससमान रे. देवचंद्र सुखी सदाई, अक्षरत्रय गुणयोग रे; चढ्या ज्ञानानंद सिंधुर, लषे लोग अलोग रे. ध्यावो० ११ इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे ढालभाषाबंधे पं० देवचंद्रविरचिते पंचमः षंडः ॥ ५ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूहा. उपशम घरी हरी दोष सहू, आदरि आत्मस्वभाव; कर्मकोटि दुषने कटे, राग द्वेष हणि थीर करे, मुनि आत्मपरिणामः अनुप्रेक्षा फल धारिने, कहूं तास गुणग्राम. दीप हणे जिम तम भणी, तिम मुनि दाहे कर्म मुनि मन चंचलता रहे, रागद्वेषने भर्म. प्रथम संघयणी दृढ, बली, शुक्लव्याननै योग; छेद्यो भेद्यो पिण जिको, न लहै कंप न सोग. न सुणे देषे न न कहै, मूर्तिलेपसम तेह; निस्संगी निश्चल यति, शुक्लध्याननी गेह. बहिरंतर समवायविणु, न सधै ध्यानसमाधि; जडपर तनममता तंजी, शुद्धतम आराधि. ११६ For Private And Personal Use Only १ ५ ढाल - रामे सीता खबर करी. एहनी ॥ बहिरात ममता तजी प्राणी, अंतर आतम रूप जी; मन थिरता करी ध्यान ध्येय विधि, शुद्धात्मनो भूप जी. गुण गावो० १ ६
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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