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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. ५५७ MannA AAAAAAA जंबू लवण आदि हो० अंत स्वयंभूरमण छेम्हा० क. संख्या तीन अनादि हो० द्विगुण प्रविस्तार छे; म्हा० क०२२ सार्द्धद्वीप क्षेत्र हो० मानुषोत्तर गिरथी उरइ; म्हा० क. तीस युगलीया क्षेत्र हो० कर्ममूमि पनरह गिणो. म्हा० क०२३ आरिज म्लेछ दुभेद हो० जन्म मरण दुख नरगते; म्हा० क० पराधीन दुख षेद हो० तिरिगतिमे दुख बहुत छे. म्हा० क०२४ कर्मवसे उदेवसि एह हो० सवि षमे प्राणी लहे; म्हा० क० अक्षरत्रय गुणगेह हो० देवचंद्र सुखसागरू. म्हा० क० २५ ज्योतिषीय तिण उपरा, चर थीर सुखी अपार रविचंद्रादि अंसख पिण, तिरछे लोक मझार. सोहमयी अच्युत लगे, उपराउपर कल्प; ग्रैवेयक विजयादि पीण, बहुत सुषी दुख स्वल्प. २ नहि विभाग दिनरातनो, रतन तेज दीपंत; घड ऋतु सुख सम काल छे, नहि अति शीत तपंत. ३ ईत भीत उत्पात अहि, सिंह चोरभय नाहि; पंचरंग मणि तेजसु, दीपे भुवन उच्छाह. रत्नवावडी रत्नसर, तिहां खेले सुरमारि, कल्पवृक्ष चिंतामणि, सार वस्तु आधारि. ध्वज छत्रांक विमानमे, स्त्रीसंगे सुखवंत क्रीडा गिरक वहीरमे, कबसें जेम न खंत. मेहके चंपक मालती, तमे मंगनी कोडि, लीलावन मंदारुतले, खेले स्त्रींनी जोडि. गावे देवी गीत गुण, वाये वीण मृदंग; गीते सुरने रीझवे, अमरी मनमे रंग. For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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