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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५२ ध्यामदौनिकासुम्पटी. ध्यानि कर्म दही करी, कब हुवे आतम शुद्धि उपादेय निज आतमा, त्रिगुण सहित निज सिद्धि. ध्यानत० ४ आस्रवबंधनो हेतु को, कोण निर्जरा हेतु; मुज आतमगुण निरमलो, मुक्तिरूप सुखकेतु; ध्यानत० ५ मोक्ष लहुं किण हेतुथी, सहज सुखी निरबाध; सर्व जाण जगपूज्य ए, शुद्धातम आराध. ध्यानत० ६ सर्व जाणे एक आतमा, इण पूंठे सहु दवे; इक निज आतम जाणतां, वस्तु जाणीये सर्व. ध्यानत० ७ ज्यांलगे पर संयोग छे, त्यांलगे निज गुण हाण; इम शुद्धातम भावतां, पामीजे शिव ठाण. ध्यानत०८ कर्मविनाशन हेतु ए, अक्षय सिद्ध उपाय; कर्मथकी पर जाणज्यो, शुद्धातम सुखदाय. ध्यानत० ९ तजि प्रमाद नित्य ध्याईए, कर्म विनाशन ध्यान; अक्षर रत्न गुणयुत लहे, देवचंद्र शुभ थान. व्यानत० १० द्रहा. कर्म चित्रता चितवन, तेहिज विचयविपाक; चेतन सुख दुःख आति सहे, कर्म उदय फलपाक. १ वस्त्राशन स्त्री नृत्य सुख, मित्र पुत्र मेलाप; सुरमि गंध बहु भोग रस, वनक्रीडादिक पाप. गृह गज हरि चाकर पुरि, अशन पान बहु सुख; कर्म उदयथी ते लहे, थये पुण्य सनमुख. काम भोग क्षेत्रादि वर, पाम्या माने सुख, तेहिज पापतणे उदये, थाये दायक दुःख. वध बंधन अरि योगथी, इष्टवियोगे शोग; जन्म मरण भव दुष बहु, थाये पापने योग, १०० For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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