SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 554
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मवृक्षमां दहे, एकुध्यान सहाये; रोगी विषय कषाय गृहीने, निंद्य ध्यान बहु थाये. चतुर० १७ दृढ संस्कार पूरवकृतयोगे, मुनिने पण प्रस्तावे; आवे पिण निज अनुभव आगली, कायर जिम नासी जीवे. चतुर०१८ ध्यानयुगल कटुफल मलआगर, दुरति कुगतिनो स्वामी; देवचंद्र ए हेय को छे, छोडो शिव विसरामी हो. चतुर० १९ दूहा. उपशम धरी मन वश करी, तजी भोग अनुराग; अनुक्रमरूपे वर्णं, धर्मध्यान मग लाग. मैत्र्यादिक चउ भावना, ध्यान तणी गत शोग; जे ज्ञानी मुनि शांतमन, तेह ध्यानने योग. थावर जंगम जीव सव, के हिंसक के शांत; के सुष के दुषकारके, के विषयी के दांत. निज स्वभाव पाम्यो सकल; सहु पाम्यो सुष गेह; समदृष्टीभावे मुनि, मैत्रीभावन एह. रोगी दीन सशोकभय, वध बंधनथी नद्ध; भूष तृषा श्रमसं नड्या, शस्त्रघात भय रुद्र. मरणभये पीडित भणी, रक्षानी मति जेहः अभयदान मति निरमली, करुणाभावन तेह. दरसन ज्ञान चरित्तयुत, तत्त्वलीन सम धारः जित कषाय तृष्णारहित, सुमति गुपति भंडार. जिनशासन परि भावना, नित नित वधती देषी; मन प्रमोद पाने अधिक, मुदिता भावन पेषी. 67 ७७ For Private And Personal Use Only ५२९ १ .६
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy