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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. निज पाले पंषी मूयां, सु० मन आवे अपसोस; निस्संगी वन नगरमे, सु निरभय रहे निरोस. लह्यो दुषे दुष राषतां, सु० नाश हूवां दुष भूर; धन काजे गुरुयी लडे, सु० भक्ष्य काज षग क्रूर. सम० १.३ हिंसारंभ कषायने, सु० करे नरकमे स्थान; सम ० सुपने पिण न करी सके, सु० धनवारी निज ध्यान काल विषय दुष मूल छे, सु० नरक हेतु धन छोडि धरि संतोष अमंद ए, सु० जो चाहे शिव थोडि पाप वधे धन संगथी, सु० गया वधे दुष दाहः इम जाणी आशा तजे, सु० पाप ताप टली जाय. धन पायो स्थिर राखवा, सु० ते नित रहेय विचारः परंतां मन दुष षधे, सु० धन दुष रूप असार स्त्री त्यागी बहु जन अछे, सु० धन त्यागी को एक आशा तजी आतम भजे, सु० देवचंद्र धरि टेक. दूहा. For Private And Personal Use Only ५०५ सम० सम० १२ सम सम० १४ सम० सम० १५ सम सम० da सम० सम० १७ सम सम० १८ हि अंतरता शुचि भणी, आशा छोडे संत; धन तन ममता ज्यां लगे, त्यां लगे मोह महंत १ ज्यां लगि आशा नवि घटे, त्यां नवि जाय मोह; जो आशा दूरे गई, तो पामेस निज सोह. संयम श्रुत रवि उदय वली, उपसम अने विवेक; निराशीने स्थिर रहे, शिवसुष लहे अनेक. आशा विषवल्लीसमी, आशा छे दुषवास; भवसागर तट तिण लह्यो, जिण जीती परआश. आशयुत मन थिर नही, आशा तजि भजि शुद्धिः न बधे कर्म निराशना, न हुवे तसु भववृद्धि, 64 ५३ ४
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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