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व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
किंपाकफल सम भोग ए, आदि रम्य दुष अंत: दोष दशे च्युत भोग तजि, ब्रह्म गहौ मतिमंत. मैथुन कांक प्रकोपना, दोष जीप तजि नारिः जलधारा सींच्यो थको, न बुझै कामविकार. ग्रीषम रविथी पिण अधिक, अछे काम संतापः ग़ख करे तन मन सही, वाधारै दुष व्याप. इण विष मूस्यो जग गिणी, तनी जोगी ले ध्यानः काम सर्प मद गालिबा, ग्रहि तुं गरुड सुज्ञान.. ९ ॥ नदी यमुनाके तीर उडे दोइ पंषीया. एहनी ॥ एह मदन महामूर जगत जीतौ जिणे. मोटी परतो. शक्ति अवर सहू अवगिणेः पोडे ए जगधाम काम संका नही, एहवो कोय न दाव जाय जिणी वही. कालकूट महादुष्ट भणी ओषव लगे, कंदर्प विषनो नाश करी नवि को सके। काम अगनि महाताप व्याप तपीया बहू. पड़े धीया तनु कीच वीच जग ए सहू. २ विसन धार मरुदेशसमे संसारमे, काम ताप तृष व्यापथकी तनु नीगमेः नंदनीक अति कर भूरि पातीक लहै, मदन संताप्यौ जीव ससदीव संकट सहै. थाये ते मतिहीन दीन मन नित रहे, पीडित कंप बाण मान किहां नवि लहः देषत थाये अंध विबुध मूष हवे, पड़ीया केद्रप पाल दासता अनुभवे..
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