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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. ४८३ दूहा. गुण पर्याय अनंत युत, अछै ज्ञान उपयोग; तीनकाल गत भावनें, जाणे जेह असोग. कर्मदाहने टालिवा, करिवा निज गुण ध्यान; लोकालोक प्रवास कर, जिनवर दाध्यौ ज्ञान. २ मति श्रुति अवधि पर्याय मन, तीस सतक छतीस विध; मतिज्ञान तूं जांणि. अंगादिक बहुभेदथी, शब्द रूप श्रुति देषि; देव नरकनें भवनित, अवविज्ञान संपेष. ४ गुण प्रत्यय नरतिरियमे, छविह अविधि अषेदः ऋजुमति विपुलमती गिणौ, मनपर्यय दुय भेद. ५ ढाल-चुघलै योबन झिलरयौ एहनी ॥ अनंत द्रव्य पर्यायसुं, प्रगट क्षायिक गुण धार; भवियण स्वापर प्रकाशक नित्य छे, निरमल ज्योति अपार.. १ भ० शुफ ज्ञान आदेय छै, ज्ञायकता गुणगेहा भवि० श्रांतिना गत कल्पना, निजस्वरूपी गतदेह. २ भ० शु० लोकालोक समस्त ए, जास अनंतम अंस; भ० तिण आगै रवि चंदनी, ज्योति सडु निलंस. ३ भ० शु० भवदुष संकट टालिवा, कारण समकित ज्ञान; भ० ज्ञान विना राहु अंध छै, ज्ञान जगतगुरु मानि. ४ भ० शु० ज्ञानमंत्रथी वसि हुवे, चल इंद्रीय मन नाग; भ० मोहशत्रु हगिवा भणी, ज्ञान कह्यौ वडषाग. ५ भ० शु० तजि निद्रा आलस सहू, मूनिवर तप जप लीन भ० साधै केवलज्ञाननें, अनुभवरससुं भीन. ६ भ० शु० For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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