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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७४ ध्यानदीपिकाचतुष्यदी. के वलि कारण दोय, भाषे शिवप्रापति वाण रे; મ रे; મ कल्पै नव नव कल्पना, ते नर मिथ्याती जाण रे. १६ भ० ज्ञानहीन किरियाथकी, वांछे नर जे फल शुद्ध रे; चक्षुहीन चाहै तिकै, तरुळायाथी फल शुद्ध रे. अंध क्रिया पंगु ज्ञान है, श्रद्धा विण न सरे काज ज्ञान क्रिया दर्शन थकी, पामे सहु आतमराज रे. कारकक्रम सहु लोकमे, विवहार चले छे अद्य रे; एकांतवादी माने नही, निज पक्षग्रहंता सद्य रे. १९ भ० जसु मति जिनमतवादनी, ध्यान सिद्ध भणी ते योग्य रे; भ० चंचल मन मुनि ध्यानमें, जिनवचने का अयोग्य रे. २० भ० ध्यानयोग्य नही मुनिनाम जे, लिंगवारी सूत्र विरुद्ध रे; भ० मन वच काया भिन्न जै, ते न लहे ध्यान विशुद्ध रे. २१ भ० पूज्यपणो निजमे कहै, परने लघु जाणे जेह रे; कर्म विकलतामें पड्या, मतिहीन कया जिन तेह रे. २२ भ० મ दूहा. संयम भार धरी करी, शील वीना मदवंत; इंद्रीवश मन चल थका, ध्यान न साधे तंत. कीरति पूजा वंदना, जे चाहै ज्ञानविहीन; अंतर मन निरमल विना, न लहे तत्त्व नगीन. ध्यान नही दूसम अरे, के कहै एहवी वाणि कामी मिथ्यामें पड्या, साधी न सक्कै झाण. मन चंचल अति जेहनो, पररंजन जसु ज्ञान; मौनपणे मार्जारसम, ते साधे किम ध्यान, २२ For Private And Personal Use Only १७ भ० भ० १८ भ० १ ३
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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