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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४७० www.kobatirth.org 'ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. अथ द्वितीयखंड. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूहा. किरिया ज्ञान मिल्या थकी, द्रव्य अनें परजाय; सोनो सुर गंध, मिलियां शोभा थाय. प्रथम खंड बीय खंड, मिलियां लहसी शोभ; भवियण सुणज्यो नेह धरि, तजी क्रोधमय लोभ. इण अनादि संसारमें, दुरलभ नरभव एह; काकातालीन्यायें लह्यो, सफलो कीजे तेह. पुरुषारथ नर जनमफल, तेह कह्या चउ भेद; काम धरमारथ नवनवा, यउथो मोक्ष अषेद. तीन वरग व्यवहार छै, जन्मादिकना ठांम ज्ञानी आतम साधिवा, मोक्ष अपूरव थांन. ध्वंसे कर्म मिथ्यातमल, जन्मादिक प्रतिकुल; मोक्ष नाम तेहिज कौ, शुद्धतम अनुकुल. वीर्यादि अनंत गुण, सहित रहित सहु क्लेश; चिदानंदमय सासतौ दाप्यो मोक्ष अलेश. विषयहीन उपमारहित, अविच्छिन्न सुषठाण; स्वयंसिद्ध नित सास्वतो, एह मोक्ष वषाण. For Private And Personal Use Only १ ३ ढाल - करमपरीक्षाकरण कुमर चल्यो रे एहनी. आतमरूप विचारौ प्राणिया रे, ध्यानतर्णै सहि नाण निरमल सांत कलंकविना अछे रे, सिद्ध कृतारथ भाण. १ आ० जिण कारण बहु पंडित तप तपै रे, तजी बंध सम्यग्ज्ञानादिक जिनवर कह्या रे, शिवसाधनना दाव. भावः २ आ० १८
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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