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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४६८ ध्यानदीपिका चतुष्पदी. क्षांत्यादि दसविध धर्म ए, गत वच तन मन दोष; मत बुरो वांछे परभणी, एहि ज धरमनौ पोष. १२ भ० नागेंद्रनगरी सुषकरू, ए धर्म नरभव सार; देवलोक सुषनो गेह ए, ए शिवसुष दातार. जो नरकदुषथी ऊभगे, देवलोक सुषनी चाह; जो मुगत सुष बांछा करे, तौ करि धर्म उच्छाह. १४ भ० १३ भ० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूहा. जिनमें सगला भाव छे, चेतन जड बे थोक; सेह लोक घट द्रव्यनो, थानक शेष अलोक. atest पवन त्रिलोकमय, तालरूप आकार, न कर्यो न धर्यौ नाश नहि, शाश्वत सहु साधार. अनादिकालनों सास्वतो, अंतर हित विण नाथ; जीव पदारथथी भयौं, सर्व द्रव्य जसु आथ. वित्रासन आकार तल, मध्ये झालरि जेम; अंते मादल सारिषौ, लौक रह्यो छै एम. तिहां कर्म वसि जीवडो, उपजे विणसे सर्व; जिहां उतपत्ति विनाशयुत, छए रह्या छे दर्व. सर्व वस्तु परिपूर्ण ए, सिद्ध अनादि पुरांण; तजि उपाधि समभाव ग्रहि, भावना लोक वषाण. For Private And Personal Use Only १ ३ ढाल - भरतनृप भावस्युं ए एहनी. दुष दोहरा पीडित सदा ए, नरक तणी गति जोइ बोधि दुलभ अछे ए, थावरमांहि भमे वली ए. करमवसे त्रस होइ, १ दुरलभ समकित अ ए. आ० १६
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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