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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. नर नारी वपु सुंदरता सहु, ते जलफेन समान; ज्योतिचक्र ऋतुगति ज्युं थिर नही, तिम वपुनी थिति मान १९भा पुरख पुदगल जे वल्लभ हुता, ते दुषदायक एथ; इंद्रजाल जिम जगमें सह पंडे, हेत न जागे तेथ. २० भा० जे जे तीन भुवनमे वस्तु छे, चेतनथी ते भिन्न; जे ते सगली मुनिवर उपदिसे, क्षणक विनश्वर तन्न. २१ भा० संख्या वान समो स्त्रीनेह छे, वादल सम योवन्नः षिणक स्वरूप जाणी संसारनौ, विद्युत्ज्युं परजन्न. २२ भा० दुहा. श्रीसदगुरु इम उपदिसे, सुणिज्यो भवियण लोय; अशरण भावन भावतां, भवदुष कदे न होइ. ए संसार असार, सुर नर नागकुमार; रहि न सके पलभार, तूटै आयु जि वार. ४५९ ढाल - मेरे नंदनां एहनी. एहवो प्राणी को नही रे हां, जे न पडै यह फंद; अशरण भावि यै रषवालो यमसिंहथी रे हां, कोई न योगी इंद. १ अ० For Private And Personal Use Only १ २ ३ अ० अ० ४ अ० जीतौ जग इण एहकलै रे हां, जिण आगे हरि दीन; अ० मूरष शोक युंही करे रे हां, ए सहु करमाधीन. भुवन यमसापें डस्या रे हां, वीता पुरुष प्रधान; देव उपाये नवि रहै रे हां, तौ नरकै है ज्ञान. नित्य प्रयाणे जीवने रे हां, यम ल्यावइ निज गेह; यमभय रहित जिके अछे रे हां, धीरज धरि भजे तेह. ५ अ० जे परने ते तो भणी रे हां, सुष दूष सम करि जोइ; जिम इक तरु अनले बले रे हां, तिम वन बलइये सोइ ६ अ० अ० अ०
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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