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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. वृथा जाणी भ्रम तजी, जागे मोक्ष निमित्तः ग्रहे राज्य समभावनौ, संभाली निज तत्त. वली केण उपाय करि, जन्म जात दुःष जाय; त्रिसना विषयतणी प्रबल, प्रसमे केण उपाय. पूज्य तेह गमाविवा, कारण कहीयौ ग्रंथ; करि उद्यम अपनो कहूं, बंध मोक्षको पंथ. ऊंची ध्वनि करि भविकने, गुरु धै ए उपदेश; जिण आवै निज शुद्धता, रहइ न दुरगति लेश. १८ वीर वाणी राणी चेलणाजी. त्रिभुवन पूज्य इम उपदिशे जी, इह परलोक विशुद्धः शुभमती ज्ञान गुण सांभली जी, कुण ग्रहै ग्रंथ अशुद्ध १ उत्तम ग्रंथ तुमे सांभलो जी, छांडज्यो कुमतिनो पंथ; गुरु उपदेस मनमै धरी जी, टालि कुव्यान मनमंथ. लघुमती मदधर जगतमे जी, निज पर वंचक रूप; कीर्त्ति वंचक थका जग ठगै जी, तत्त्व विमुष अघकूप. ३ उ० शास्त्र तिणे सांभल्यां स्यूं हुवे जी, मन पँडै जेणै भवमांहि; आदि मीठो फल शून्य छे जी, विषम समौ विक्रिया झाझि ४ उ० अचरज अज्ञ मनुष्यनो जी, जे ग्रहे कुग्रह एहः सौ गमे तासु समझावतां जी, नवि तजै निज हठ तेह. ५ उ० शुद्ध नर शास्त्र ए वाचज्यो जी, दोष गुण एहना देषि; सुमतिधर द्वेष को मत करो जी, शास्त्र ए मोक्ष फल पेष. ६ उ० ग्राव जिम अवगुण गुण भणी जी, वहिचस्ये नियत मन लोक; दूषवै दुर्मती अतिभठी जी, भारती चंद्र जिम कोक. ७ ३० ३ ४५५ १५ १६ १७ २३०
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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