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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. १७९ दोषरहितत्वात् अर्हतः वाक्यं आगमः, तदनुयायिपूर्वापराविरुद्धं मिथ्यात्वासंयमकषायभ्रान्तिरहितं स्याद्वादोपेतं वाक्यं अन्येषां शिष्टानामपि वाक्यं आगमः। लिङ्गग्रहणाद् ज्ञेयज्ञानोपकारकं अर्थापत्तिप्रमाणं; यथा पीनो देवदत्तो दिवा न भुले तदा अर्थाद्रात्रौ मुख एव, इत्यादि प्रमाणपरिपाटीगृहीतजीवाजीयस्वरूपः सम्यक्ज्ञानी उच्यते. अर्थ ॥ हवे प्रमाणन स्वरूप कहे छे सर्व नयना स्वरूपने ग्रहण करनारो तथा सर्व धर्मनो जाणंगपणो छ जेमां एहवू जे ज्ञान तेने प्रमाण कहिये जे प्रमाण ते मापवानुं नाम छे. त्रण जगत्ना सर्व प्रमेयने मापवानुं प्रमाण ते ज्ञान छे अने ते प्रमाणनो कर्त्ता आत्मा ते प्रमाता छे ते प्रत्यक्षादि प्रमाणे सिद्ध के० ठहेरयो छे चैतन्य स्वरूप परिणामी छे. वली भवन धर्मथी उत्पाद व्ययपणे परिणमे छे ते माटे परिणामिक छे. तमा कर्ता छे तथा भोक्ता छे. जे कर्ता होय तेज भोक्ता होय. भोक्तापणा विना सुखमयी कहेबाय नही ते चैतन्य संसारीपणे स्वदेह परिमाण छ प्रतिक्षेत्र के प्रत्येक शरीर भिन्नपणा माट मिन्न जीव छे ते जीव पांच कारणनी सामग्री पामीने सम्पग्दर्शन सम्यक्ज्ञान सम्यकचारित्रने साधवाथी संपूर्ण, अविनाशी, निर्मल, निःकलंक, असहाय, अप्रयास, स्वगुण निरावरण, स्वकार्य प्रवृत्ति, अक्षर, अव्याबाध, सुखमयी, एवी सिद्धता निष्पन्नता नीपजे एज साधन मार्ग छे. स्व शब्दं करी आत्मा परशब्दें परद्रव्य स्व आत्मायी भिन्न अनंता पर जीव धर्मादिक तेना व्यवसायी व्यवच्छेदक जे ज्ञान १०७ For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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