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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७० देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार. माणु तथा खंध इत्यादिक कार्यभेदें भिन्न माने तथा क्रमभावी पर्यायना बे मेद एक क्रियारूप बीजो अक्रियारूप इम वेहेंचण जे सामर्थ्यादिक गुणभेदें पडे ते सर्व व्यवहारनय जाणवो अने जे परमार्थ विना द्रव्यपर्यायनो विभाग करे ते व्यववहाराभास जाणवो. जे कल्पना करी भेदं वेचे ते चार्वाकमत प्रमुख ए व्यवहारनयनो दुर्नय छे जेम चार्वाक प्रमाणपणे छतो जीवपणो लोकप्रत्यक्षमा दृष्टिगोचर नथी आवतो ते माटे जीव नथी एम कहे अने जगतमा पंचभूतादिक वस्तु नथी एम कल्पना करी स्थूललोकने कुमार्गे प्रवर्तीवे ते व्यवहारदुर्नय कहियें ए व्यवहारनयनुं स्वरूप कह्यु. ऋजु वर्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्रप्राधान्यतः सूत्रयति अभिप्रायः ऋजुसूत्रः । ज्ञानोपयुक्तः ज्ञानी, दर्शनोपयुक्तः दर्शनी,कषायोपयुक्तः कषायी, समतोपयुक्त सामायिकी। वर्तमानापलापी तदाभासः यथा तथागतमत इति ।। अर्थ ॥ हवे ऋजुसूत्रनय कहे छे ऋजु के० सरलपणे अतीत अनागतने अणगवेषतो अने वर्तमानसमय वर्त्तता जे पदार्थना पर्यायमात्र तेने प्रधानपणे सूत्र के० गवेषे ते ऋजुसूत्रकहिये। ते ज्ञानने उपयोगें वर्तताने ज्ञानी कहे, दर्शनोपयोगें वर्तताने दर्शनी कहे, कषायपणे वर्तता जीवने कषायी कहें, समताने उपयोगें वर्तता जीवने सामायिकवंत कहे. इहां, कोइ पुछे जे उपर कह्या मुजब तो ऋजुसूत्र तथा शब्दनय ए बे एकज थाय छे तेने उत्तर कहे छे जे विशेषावश्यकमां कयुं छे. " कारणं यावत् ऋजुसूत्रः " एटले ज्ञानने कारणपणे वर्ततो ते For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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