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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०१४ गुणठाणाअधिकार. षणा करवी ते वली द्रव्यथी वेद ३ उदये जे कामविकारीपणे भोगविलासादिक, भावथी आत्मपरणति परभोगीपणे पर वस्तु अशुचिपरिणाममध्ये रमणीकता ते माहारे जीवे, एकेन्द्रिपणे बेरिन्द्रिपणे, तेरिन्द्रिपणे, चोरिन्द्रिपणे, पंचेन्द्रिपणे फरसन १ रसन २ घ्राण ३ चक्षु ४ श्रोत्रेन्द्रिय ६ इन्ट्रीना वीस विषये वांच्छ्य । सेव्या सेवाया सेवता अनुमोद्या होई ते मन वचन कायाए करी श्रीप्रभुजीनी साखे आत्मसाखे मिच्छामिदुक्कडं ४ हवे पांचमो पापस्थान परिग्रह जे कोई आत्मधर्मयी अन्यभाव संरक्षण परिणामे राखवा ते लौकिक परिग्रह द्विपद चतुःपद धनधान्य गृहखेत्र वस्त्रप्रमुख, लोकोत्तर परिग्रह सम्यक्त्वनो हेतु मोक्षकारण श्री अरिहंतनो चैत्य तथा जिनचिंत्र तथा ज्ञाननो कारण पुस्तक नवकारवाली प्रमुखचारित्रना उपगरण तेहने ममत्वभावे गृहे द्रव्य परिग्रह पुद्गल खंधादि ममत्वभावे ग्रहे भावपरीग्रह क्रोधादिक अशुद्ध परिणाम परभावस्वामित्वग्राहकत्वादिक परिणति ते परिग्रह राख्यो हवे परद्रव्यनी इच्छा करे हवे, परिग्रह सुख मान्यो हवे, परिग्रह वासते धर्मआचरण करच हवे ते परिग्रह पापस्थान मने वचने कायाए करी सेव्यो होये सेवतां अनुमोद्यो होवे ते श्री अरिहंतनी साखे गुरुसाखे आत्मसाखे भिच्छामिदुक्कडं ५ हवे छट्टो पापस्थानक क्रोधतप्त परिणाम क्षमानो रोचक ते लौकिक भाई पिता प्रमुख कुटुंब उपर तथा अन्य जीव उपर क्रोध परिणाम लोकोत्तर देवगुरु साथर्मिक उपर क्रोव परिणामते द्रव्यतः तथा सकठोरता भाव तथा रुद्र परिणान ते जो कोई रीतनो अप्रशस्त क्रोध कर्यो होवे कराव्यो होवे करता अनुमोद्यो होवे तेथी त्रिभुवनपति निरंजन देवनीसारखे गुरूसाखे आत्मसाखे मिळामिक ६ दवे सातमो T For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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