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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणठाणाअधिकार. १०११ साधूजी नाव्या तो एहवी भावना भाववी जे धन ते श्रावक जे साधुजीने वहोरावीने जिमता हस्ये इंम करतां चिंतवी जिमवा बेसे ए बारव्रत धरे ते श्रावक कहीइं श्रावकने जवन्य ३ वार उत्कृष्टे ७ वार चैत्यवंदन करवं, अरिहंतदेवसिद्ध भगवंतने वंदना करवी तथा नित्य पडिक्कमणुं बे वार करवू जो नित्य न थाये तो पाखीनो पडिकमणुं नियमा करवू तथा पच्चरकाण प्रभातना नोकारसी, अवस्य साचववी, रात्रिचउ विहार तिविहार दुविहार ए ३ मांहि एक पच्चराण अवस्य करवू ए पांचमा गुणठाणानी स्थितिः जवन्य अंतमुहूर्त उत्कृष्ट उणी पूर्वकोडी वर्षनी जाणवी. ए जीव अढार पाप स्थानक आलोइने निर्मल थयो चारित्रफरसे ते कहे छे, अथ अढारे पाप स्थान लिखीइं छे. कोइ भव्य जीव अवसर पामीने जैनागम सूणतां संसारथी उभग्यो थको मोक्ष सुखनो अभिलाष करे पण आलंबन विना कार्य नीपजवो दुक्कर छे तेथी प्रथम देवतत्त्व श्री वीतराग अनंत ज्ञानमय अनंतदर्शनमय शुद्ध स्वरूपी आत्म रुद्धिभोगी आत्मालंबी अत्मपरणामी जेहने अवलंबीने अनंता जीव अव्याबाध सुख वरे ते देवतत्व तेहने सेववे सर्व जीव संसारभयथी छुटे तथा निग्रंथपंच महाव्रतधारी संवरस्वरूपी एक निर्मल मोक्षमार्गने विषे जेहनी दृष्टि छे, शरीर इंद्रीय, कषाय, जोगनी प्रवृत्तिजापता मुनिराज अतीतकाल विषय संभालता नथी, वर्तमानविषे रमणता नथी, अनागतकाल विषयनी आसंसा नथी, पोताना अनंतगुणपर्याय निर्मल करवाने उत्कृष्ट उद्यमवंत छे ते साधु महात्मा गुरुपणे धारवा, तथा धर्मतत्व जे जीव द्रव्य असंख्यात प्रदेशी स्यावाद रीते पोतानी गुणीय परणति ते धर्म श्री For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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