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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १८७ चालि. 13 ૧૪ अनुन्वान प्रवचनधर आणा इसर देव, ૧૫ १९ ૧૭ ૧ भट्टारक भगवान महामुनि मुनिकृत सेव Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ २० ૧૨ गच्छ भारघर सद्गुरु गुरुगंण युक्त अधीश, ૨૩ ૨૪ ૧૫ ૧૬ गणि विद्याधर श्रुतधर शुभ आश्रय जगीश. ॥ ८२ ॥ दुहा. नाम इत्यादि जस दिव्य छाजे, देशना देत घन गुहिर गाजे; जेथी पामी अचल धाम, तेह आचार्यने करूं प्रणाम ॥ ८३ ॥ चालि. आचारय नमुक्कारे वासित जेहनुं चित्त, धन्य ते कृत पुण्य ते जीवित तास पवित्त, अतिध्यान तस नवि हुई, नवि हुई दुरगति वास, भव क्षय करतारे समरतां, लहिइं सुकृत उल्लास ॥८४॥ दुहा. पद चउत्थे ते उवजझाय नमिए, पूर्व संचित सकल पाप गमिए; जेह आचार्य पद योग्य धीर, सुगुरु गुण गाजता अति गंभीर ॥८५॥ चालि. अंग ईग्यार ऊदार अरथ सुचि गंग तरंग, वार्त्तिक वृत्ति अध्ययन अध्यापत वार उपांग; गुण पंचवीस अलंकृत सुकृत परम रमणीक, श्री उवज्झाय नमी जे सूत्र भणावे ठीक. ॥ ८६ ॥ , दुहा. सूत्रं भणीई सखर जेह पासे, ते उपाध्याय जे अर्थ भासे; तेह आचार्य ए भेद लहीए, दोईमां अधिक अंतर न कहीए.।। ८७ ।। For Private And Personal Use Only
SR No.008539
Book TitleBhajanpad Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1909
Total Pages308
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size12 MB
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